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धर्म के साथ व्यंजनों से भी जुड़े होते हैं त्योहार, जानिए कैसे वक्त के साथ इनमें होते गए बदलाव

एक समय था जब इन त्योहारों के मौसम में रसोई में निकलती नित नई सुगंध इनका मजा दोगुना कर जाती थी। बाहरी मिठाइयों और पकवानों की होड़ में आज उन पकवानों की सिर्फ यादें ही बची हैं।

By Priyanka SinghEdited By: Published: Mon, 07 Oct 2019 01:25 PM (IST)Updated: Mon, 07 Oct 2019 03:08 PM (IST)
धर्म के साथ व्यंजनों से भी जुड़े होते हैं त्योहार, जानिए कैसे वक्त के साथ इनमें होते गए बदलाव
धर्म के साथ व्यंजनों से भी जुड़े होते हैं त्योहार, जानिए कैसे वक्त के साथ इनमें होते गए बदलाव

पुष्पेश पंत

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नवरात्रि के साथ जो महीना आरंभ होता है वह दीवाली और उसके बाद भी दो-चार दिन तक हर्षोल्लास के पर्व के रूप में मनाया जाता है। लोकसंगीत की 'बारामासा' परंपरा हो या राजपूत शैली और पहाड़ी कलम के लघुचित्र शरद ऋतु और कार्तिक के महीने का अद्भुत आकर्षण मनमोहक तरीके से किया जाता रहा है। विडंबना यह है कि आज की नौजवान पीढ़ी के लिए यह सब पाठ्यपुस्तकों तक सीमित हैं या इक्का-दुक्का देसी-विदेशी रसिक विशेषज्ञों की दिलचस्पी का विषय समझी जाती हैं। इससे भी बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना यह है कि हम खान-पान की अपनी पारिवारिक धरोहर का संरक्षण करने में भी असमर्थ सिद्ध हुए हैं।

विरासत का नुस्खा

घर की रसोई के उन व्यंजनों की याद धुंधला चुकी है जो कुछ ही समय पहले तक त्यौहार के मौके पर या मौसम के बदलने का कुदरती संकेत मिलने के साथ अनिवार्यत: हर घर में पकाए-खाए-खिलाए जाते थे। संपन्न परिवारों में ही नहीं, साल भर अभाव का कष्ट झेलने वाले भी पारंपरिक पकवानों का सुख भोगते थे।

जुगलबंदी जगाती भूख

कुछ ऐसे व्यंजन थे जो पूरे प्रांत या क्षेत्र में लोकप्रिय थे तो अन्य किसी समुदाय या बिरादरी की पहचान के साथ जुडे़ थे। शुभ अवसर पर तवा 'वर्जित' समझा जाता था तो कड़ाई के दिन फिर जाते थे। पूरी-आलू की कचौरी की जुगलबंदी सीताफल या आलू-अरबी की सूखी या तरी वाली सब्जी के साथ साधी जाती थी। कहीं तरी दही वाली हल्की खटास का पुट लिए होती थी तो कहीं टमाटर अपनी करामात दिखलाता था। बनारस के वैश्य और खत्री परिवारों ने आलू की सब्जी के लगभग आधा दर्जन प्रकार ईजाद कर लिए थे। 

जैसी पसंद वैसे मसाले

सब्जियों का मिश्रण उनके मिजाज को देखकर संतुलित तरीके से किया जाता था। विभिन्न सब्जियों में बरते जाने वाले मसाले जगह और परिवार के साथ निजी पसंद के अनुसार बदलते थे। रेडीमेड गरम मसाला अजनबी समझा जाता था। जीरा, मेथी, धनिया, हींग, अजवाइन का जलवा था। लौंग, इलायची, दालचीनी, काली मिर्च के अलावा जावित्री-जायफल काम आते थे। इनका प्रयोग भी एक साथ नहीं होता था। कहीं कलौंजी अपना कमाल दिखलाती थी कहीं सौंफ महकता था।

मुंह में घुलती मिठास

हलवा आम तौर पर सूजी या आटे का बनता था पर वैश्य परिवारों में दाल का हलवा भी चाव से खाया जाता था। मुंह में रखते ही हवा में घुलकर गुम हो जाने वाले पुए अब लगभग लुप्त हो गए हैं। उत्तराखंड के गांवों में हलवा सूजी से नहीं चावल के आटे से बनाया जाता था जिसे 'शै' कहते थे। सेवइयों की खीर का चलन कम था। गन्ने के रस की खीर और गुड़ की खीर बनाने के लिए अपेक्षाकृत अधिक कौशल की दरकार होती थी इसीलिए इनको चखने का मौका कम मिलता था।

न भूलें अपनी परंपराएं

आज इन सब की सिर्फ यादें ही शेष हैं वह भी उम्रदराज पुरखों के मन में ही। हमें लगता है विदेशी जायकों के पीछे भागने वाले देसी खानसामों को अपनी पारंपरिक पारिवारिक खान-पान की विरासत को बचाने की चिंता सतानी चाहिए। फास्टफूड के सेहत के लिए नुकसानदेह कचरे को जुबान पर चढ़ने से रोकें।


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