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व्यंग्य: सम्मान की सद्गति

मेरे खुद के सपने तो इस छोटी सी बिरादरी के चारों तरफ खिंची हुई श्रद्धा की प्राचीर में किसी तरह सेंध लगाकर घुस जाने की तिकड़मों से ही जुड़े हुए होते हैं।

By Babita KashyapEdited By: Fri, 31 Mar 2017 02:34 PM (IST)
व्यंग्य: सम्मान की सद्गति
व्यंग्य: सम्मान की सद्गति

कौन सोच सकेगा कि देश के यशस्वी साहित्यकारों और कलाकारों की पंगत में बैठकर सम्मानित होने से भी किसी का जी उकता सकता है। मेरे खुद के सपने तो इस छोटी सी बिरादरी के चारों तरफ खिंची हुई श्रद्धा की प्राचीर में किसी तरह सेंध लगाकर घुस जाने की तिकड़मों से ही जुड़े हुए होते हैं। पर पिछले दिनों एक मूर्धन्य साहित्यकार को दुखी देखा तो आश्चर्य हुआ। वे राजकीय सम्मान के निंदकों को अंगूरों तक न पहुंच पाने वाली उस लोमड़ी सा समझते आए हैं जिसने अंगूरों के खट्टे होने के विषय में निहायत वामपंथी किस्म का वक्तव्य दिया था। मेरे कौतूहल को शांत करते हुए उन्होंने बताया कि उनकी परेशानी का सबब सम्मान और पुरस्कार नहीं बल्कि उनके साथ मिले शॉल-दुशाले थे।

मेरी जिज्ञासा बढ़ी तो उन जैसे और कई महान लोगों से भी इस विषय में बात की। उनमें से कई सम्मान लौटा

चुके थे, कुछ लौटाने की सोच रहे थे और कुछ लौटाने वालों और न लौटाने वाले खेमों के बीच ऊहापोह वाली

मुद्रा में बैठे हथेली पर सुरती मल रहे थे। सम्मानों के विषय में तो वैचारिक मतभेद मिला पर सर्वेक्षण में हर श्रेणी के सम्मानित गुणीजन समान रूप से सम्मान के सामान से दुखी मिले। सम्मान तो चलो अगर प्रशस्तिपत्र के रूप में मिला था तो कोई बात नहीं। उसे अपने ड्रॉइंग रूम की दीवार से उतारा और भेज दिया उस सरकारी दफ्तर या गैरसरकारी संस्था को जहां से वह मिला था। कुछ-कुछ सम्मानों के साथ स्मृति चिन्ह याने शील्ड-वील्ड टाइप की चीजें भी मिलती हैं जिनमें वाग्देवी अपने भक्तों की अकुलाहट से बेखबर अपनी वीणा के तारों की झंकार में डूबी रहती हैं या अपने प्रिय हंस के धवल, चिकने परों को सहलाती नजर आती हैं।

ऐसे सम्मान चिन्ह भी लौटाए जा सकते थे। पर सम्मान के साथ हर बार जो शॉल-दुशाला ओढ़ा दिया जाता है वह उनकी जान का जंजाल बन जाता है। नकद पुरस्कारों की बात और है। एक तो नकद पुरस्कार होते ही बहुत कम हैं। फिर हर नकद पुरस्कार की राशि नोबेल या ज्ञानपीठ पुरस्कार के टक्कर की तो होती नहीं कि आसानी से हजम न हो। यद्यपि जो थोड़ी बहुत नकदी इन पुरस्कारों और सम्मानों के साथ मिलती है वह अधिकांश सम्मानितों को उम्र के उस पड़ाव पर पहुंचकर मिलती है जब तक सरकारी सेमिनारों आदि में देश-विदेश घूमकर और पांच सितारा होटलों में खा-पीकर वे अघा चुके होते हैं। दो-चार प्रतिशत ऐसे भी निकल आते हैं जो जीवनभर भूखे पेट कला या साहित्यसेवा करते-करते सम्मान और सम्मानराशि हजम करने योग्य ही नहीं रह पाते।

जो भी हो, नकद सम्मान स्वयं नहीं तो बाल-बच्चों के बीच कहीं न कहीं खप ही जाता है। असली मुसीबत की जड़ तो हैं वे शॉल-दुशाले, जो पुरस्कार समारोहों का अभिन्न अंग बन गए हैं। हर समारोह में किसी मंत्री या नेता के तथाकथित करकमलों द्वारा दीप प्रज्ज्वलन जितना जरूरी है उतना ही सम्मानित किए जाने वाले के कंधों पर शॉल-दुशाले ओढ़ाने का चलन भी।

काश इन सम्मान समारोहों के आयोजक समझते कि कुर्ता-धोती में सुसज्जित लंबी कुंतल केशराशि बिखराए

साहित्यकार, संगीतकार, नर्तक अब बीते जमाने की चीज हो गए हैं। आजकल वे भी कमीज-पैंट पहने नजर आते हैं। ज्यादा सर्दी का मौसम हुआ तो ऊपर से स्वेटर, जैकेट, कोट कुछ डाल लिया। महिलाओं के बीच वैसे ही कम से कम वस्त्र धारण करने की होड़ लगी रहती है, सर्दी हो या हिमपात। शॉल-दुशाले किस काम के? ऊपर से (सॉरी,

अंदर से) थर्मल अंदरूनी वस्त्रों ने कोट-जैकेट की भी खटिया खड़ी कर दी है। अपने काम से जो केवल बस और

लोकल ट्रेन में सफर कर पाते हैं उनके लिए शॉल-दुशाले संभालना कठिन होता है! तो फिर हर सम्मान और पुरस्कार के साथ अनिवार्य रूप से मिलने वाले शॉल-दुशालों का कोई करे तो क्या करे? फूलों की माला तो उतारकर सामने मेज पर रखकर छोड़ी भी जा सकती है पर सम्मान समारोह में ही शॉल को ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ वाले अंदाज में उतारकर छोड़ देने में तो शायद कबीर दास भी सकुचाते।

नतीजा यह कि सारे शॉल-दुशाले घर लाने पड़ते हैं जहां वे पहले से मिले बीसियों की ढेरी में शामिल हो जाते हैं। बच्चे उन्हें पहनते नहीं और जिस शॉल-दुशाले के साथ साहित्य अकादमी या संगीत नाटक अकादमी जैसी महती संस्थाओं का नाम जुड़ा हुआ हो उसे घर में काम करने वाली महरी को दे देने का मन नहीं करता है।

इस विषय में मेरा (अभी तक पेटेंट नहीं किया हुआ) सुझाव है कि शॉल-दुशालों से संबद्ध कलाकारों और

साहित्यकारों के नाम उजागर करते हुए उन्हें सम्मानार्थ ओढ़ाए हुए शॉल-दुशालों की ई-नीलामी क्यों न प्रारंभ

की जाए? नोबेल पुरस्कार के साथ तो अभी शॉल-दुशाले मिलने का चलन नहीं है। पर ज्ञानपीठ और देशकोत्तम जैसे पुरस्कारों के विजेताओं के शॉल-दुशालों की तो अच्छी बोली लगेगी। फिर वैसे भी रखे-रखे उनका गुरुदेव के नोबेल पुरस्कार और बिस्मिल्ला खां साहेब की रजत शहनाइयों वाला हश्र हो सकता है जो पहले बक्सों में बंद

रहीं और फिर चोरी हो गई। रखे-रखे जिन दुशालों में छेद बन गए हैं उनकी तो एंटिक वैल्यू और भी अधिक होगी जैसी ‘अकबरी लोटे’ के लिए मिली थी। संभावनाओं का अंत नहीं है। एक अकेला सम्मानित व्यक्ति कितने शॉल-दुशाले दे सकता है, कुछ तो उसने ओढ़ ही डाले होंगे। पर इस नए पोर्टल से जब सारे कलाकार जुड़ जाएंगे तो उस पर उपलब्ध शॉल-दुशालों की धारा कभी सूखेगी नहीं। फायदे भी कई।

एक तो सम्मानित होने वालों को आम के आम और गुठलियों के दाम मिलते रहेंगे। दूसरे, कलाकारों का सम्मान करने वाले उनके ओढ़े हुए दुशाले स्वयं ओढ़कर उनसे भावनात्मक ही नहीं, क्रियात्मक रूप से भी जुड़ सकेंगे। तीसरे, अमूल की तरह शॉल-दुशाला विक्रेता साहित्यकारों, कलाकारों की सहकारी संस्था बनाकर उसके पदाधिकारी वे गुणीजन बनाए जा सकते हैं जिनकी कला और साहित्य का नींबू तो अब पूरा निचुड़ चुका है पर वे अभी भी पंगत में बैठे रहना चाहते हैं और अंत में इस प्रकार के प्रयास को लक्ष्मी और सरस्वती का एक सहकारी उद्योग माना जा सकता है जो अपने आप में एक अभूतपूर्व उपलब्धि होगी।

अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

 डी-295, सेक्टर -47 नोएडा-201301