किचन के कचरे से बनी बायोगैस
दुनिया भर में ईंधन के वैकल्पिक स्रोत की खोज का काम जोरों पर है। कहीं गाड़ियों के ईंधन के लिए पेट्रोल और डीजल के विकल्प तलाशे जा रहे हैं तो कहीं रसोई गैस के नए स्रोत की खोज हो रही है।
किचन का कचरा भी बहुत काम का साबित हो सकता है। इसे प्रायोगिक स्तर पर साबित किया है झारखंड सरकार के इकलौते इंजीनिर्यंरग संस्थान ‘बिरसा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ (बीआइटी), सिंदरी के केमिकल इंजीनिर्यंरग विभाग के शिक्षक-छात्रों ने। उन्होंने अपने प्रोजेक्ट से यह बताने की सार्थक कोशिश की है कि यह एक लाभदायक उर्वरक के साथ ही ऊर्जा का स्नोत भी है जो भविष्य में एलपीजी का बेहतर विकल्प बन सकता है। शुरुआत में इसका उपयोग बीआइटी कैंपस के ही मेस में किया जाएगा।
सस्ती और ईको-फ्रेंडली : किचन से निकलने वाले सब्जी आदि के अपशिष्ट को बायोगैस में बदला जा सकता है। यह प्रक्रिया बेहद सस्ती और ईको-फ्रेंडली है। इस दिशा में देशभर के इंजीनिर्यंरग संस्थानों में शोध किया जा रहा है। बीआइटी सिंदरी में भी इस प्रोजेक्ट पर काम जारी है। पूरी तरह सफलता मिलने पर इसे सूबे में लागू करने के लिए राज्य सरकार को प्रस्ताव भेजा जाएगा।
कैसे काम करेगी तकनीक : बायोगैस को तैयार करने के लिए टंकीनुमा उपकरण में किचन से निकले जैविक कचरे को बारीक काटकर डाला जाता है। फिर उसमें नमी के लिए पानी के साथ ही जल्द सड़ने के लिए कार्बनिक केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है। इसके बाद ही बायोगैस बनने की प्रक्रिया शुरू होती है। 500 लीटर की टंकी में एक दिन में इतनी बायोगैस बन जाती है कि चारपांच व्यक्तियों के एक परिवार के लिए दो बार का खाना बनाया जा सकता है। इस प्लांट को एक घर में चार से पांच हजार रुपये की लागत से लगाया जा सकता है।
इस तकनीक के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल की पूरी संभावना है। इस दिशा में राज्य सरकार की अनुमति से नगर निगम से एमओयू के लिए प्रयास किया जा रहा है। हमारा उद्देश्य इस तकनीक को घर-घर पहुंचाना है। इसके लिए सरकारी स्तर के साथ ही नगर निगम के सहयोग की भी जरूरत है। - डॉ. डीके सिंह, निदेशक, बीआइटी सिंदरी
-अशोक कुमार, धनबाद
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