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मनुष्यता का नन्हा विश्व है 'मैकलुस्कीगंज'

रांची : 'कलम' की यह सातवीं कड़ी थी। इस बार के अतिथि थे पत्रकार और उपन्यासकार विकास कुम

By JagranEdited By: Published: Sun, 17 Feb 2019 08:14 AM (IST)Updated: Sun, 17 Feb 2019 08:14 AM (IST)
मनुष्यता का नन्हा विश्व है 'मैकलुस्कीगंज'
मनुष्यता का नन्हा विश्व है 'मैकलुस्कीगंज'

रांची : 'कलम' की यह सातवीं कड़ी थी। इस बार के अतिथि थे पत्रकार और उपन्यासकार विकास कुमार झा। चर्चा उनके उपन्यास पर थी-मैकलुस्कीगंज। यही नाम है। यह गांव की कहानी, लेकिन यह गांव अलहदा है। जुदा है। क्योंकि यह गांव एंग्लो-इंडियन है। यही लोगों ने इसे बसाया। संवारा। बहुत पुराना नहीं। करीब नौ दशक पुराना। झारखंड के किसी लेखक का ध्यान इस ओर नहीं गया। तब पत्रकारिता के सिलसिले में मैकलुस्कीगंज आना-जाना रहा और फिर यह इस गंज ने अपनी कथा सुनाने के लिए विकास कुमार झा को चुन लिया। फिर तो यह गांव भी उनका अपना गांव हो गया। विकास कहते भी हैं, एक गांव सीतामढ़ी का है और दूसरा मैकलुस्कीगंज। जैसे राही कहते थे, वह तीन मां के बेटे हैं। विकास कुमार झा ने पूरी कहानी सुनाई, पूरी शिद्दत और संवेदना के साथ। कहा, मनुष्यता का नन्हा विश्व है 'मैकलुस्कीगंज'। हर संस्करण की अलग कहानी : हर संस्करण अलग है। उन्होंने बताया कि हर बार इसमें कुछ जुटता चला गया। जब भी इसका संस्करण आया, पहले से अलग और कुछ अतिरिक्त सामग्री के साथ। पहली बार 1993 में आया था। तब उसकी पृष्ठ संख्या पौने दो सौ थी। अब नया संस्करण जो आया है, वह 533 पेज का है। हर बार लगता है कि कुछ कहानी छूट गई है। तब, फिर उस कहानी को पूरा करने के लिए कुछ पन्ने जोड़ता हूं। हेमिंग्वे ने भी अपनी एक रचना को एक हजार बार सुधारा था। वे अभागे हैं, जिनका कोई गांव नहीं : यह गांव की कहानी है। देहात की कहानी है। भारत गांवों का देश है और इसलिए यह महत्वपूर्ण है। देहात मतलब देह-हाथ। विश्व के क्लासिक उपन्यास गांव पर ही आधारित हैं। यह कथा भी गांव की है। और, गांव के बहाने पलायन भी है। उनके दुख-दर्द हैं। कहा गया है, शहर की खबर जाननी हो तो गांव जाओ। यह गांव ऐसा ही है। पुराने लोग कह गए हैं-वे अभागे हैं, जिनका कोई गांव नहीं। मेरा तो दो-दो गांव है। जिनका बचपन गांव में नहीं बीता, वह संपूर्ण व्यक्ति नहीं बन पाता है। गांव से रिश्ते जरूरी हैं। आम-जामुन का मिश्रण है मैकलुस्कीगंज : यह उपन्यास एंग्लो-इंडियन की कहानी कहता है। स्टेशन के पास एक पेड़ है-उसमें आम और जामुन एक साथ है। यह दोनों का मिश्रण है। उपन्यास का पात्र रोबिन गांव को बचाने की जद्दोजहद करता है। यह दर्द आज भी है। यही नहीं, यह भविष्य के गांव का एक मॉडल पेश करता है। नायक सामूहिक खेती पर जोर देता है। कहता है-सभी मेड़ को तोड़ दो। जिसका जितना हिस्सा, उसे उतना मिलेगा। नब्बे प्रतिशत पात्र अपने नाम से मौजूद : विकास कुमार झा ने कहा कि उपन्यास में नब्बे प्रतिशत पात्र अपने मूल चरित्र के साथ मौजूद हैं। यहां रांची के बारे में भी एक-एक डिटेल हैं। जहां कहीं भी किसी क्षेत्र का वर्णन आया, उसके बारे में पूरी कहानी है। इसलिए, यदि कोई यहां न भी आया हो तो वह उपन्यास पढ़कर यहां के भूगोल के बारे में जान सकता है। इसके लिए काफी परिश्रम किया और एक-एक डिटेल को नोट किया। इसलिए, यह उपन्यास महज कथा-कहानी नहीं, जीवन का रौशन दस्तावेज है। उषा उत्थुप का भी है संबंध : उन्होंने उषा उत्थुप के बारे में भी बताया। कहा, उनका भी यहां से संबंध रहा है। उस पूरे प्रसंग को सुनाया। एक बात और कही। कहा, उपन्यास जिस परिवेश में रचा जाता है, जहां का भूगोल है, वहां की संस्कृति, गीत, प्रकृति और मुहावरे आने चाहिए। इस पूरे उपन्यास में यहां की खूबसूरत प्रकृति, मुहावरे, नागपुरी गीत और बोल-चाल की भाषा का इस्तेमाल किया गया है। जैसे ईट की देवी मांगे प्रसाद। शब्दों-मुहावरों का इस्तेमाल किया गया है।

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हर रोज लिखिए

नए लेखकों से कहा, यदि लिखना है तो हर रोज चार-पांच पेज लिखिए। नामवर सिंह ने कहा है-कलम को बर्तन की तरह रखो। इसे रोज माजो। लेखन निरंतर अभ्यास की मांग करता है। चेखव का किस्सा भी सुनाया। बातों का सिलसिला चल रहा था। बात से बात निकल रही थी। खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। लोगों की जिज्ञासाएं भी शांत होने का नाम नहीं ले रही थी।

स्वागत-संबोधन

स्वागत नवरस स्कूल ऑफ परफार्मिग आर्ट की अन्विता प्रधान ने किया। अतिथियों को सम्मान माया वर्मा व महुआ माजी ने किया। असीत कुमार, महुआ माजी, प्रमोद कुमार झा, वीणा श्रीवास्तव ने प्रश्न भी पूछे। कार्यक्रम में कलावंती सिंह, संगीता कुजारा टाक, रश्मि शर्मा, अनिता रश्मि, रेणु त्रिवेदी, राजश्री जयंती, डॉ हरेंद्र प्रसाद सिन्हा, मैकलुस्कीगंज के सुरेंद्र नाथ पांडेय सहित कई साहित्यप्रेमी मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन डॉ अजीत प्रधान ने दिया।


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