टुसू का असर, होटल, रेस्टोरेंट, दुकानों में काम करने वाले कर्मचारी अपने घरों को लौटे, कई प्रतिष्ठान अगले दो दिन रहेंगे बंद
मकर संक्राति के अवसर पर झारखंड में मनाया जाना वाला पर्व टुसू का असर अब बाजार में दिखने लगा है।
जागरण संवाददाता, राची : मकर संक्राति के अवसर पर झारखंड में मनाया जाना वाला पर्व टुसू का असर अब बाजार में दिखने लगा है। होटल, रेस्टोरेंट व दुकानों में काम करने वाले कर्मचारी अपने-अपने घरों की ओर लौटने लगे हैं। कई प्रतिष्ठान 14 व 15 जनवरी को बंद रहेंगे। कर्मचारियों की कमी के कारण इनका संचालन नहीं हो सकेगा। आदिवासी समाज द्वारा टुसू महोत्सव को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही लोगों की परंपराएं और संस्कृति जुड़ी हुई हैं। लोग इस पर्व को अपने घर-परिवार के बीच मनाना चाहते हैं। यही कारण है कि शहरों में रहने वाले बड़ी संख्या में लोग गावों की ओर लौट रहे हैं। गाव में टुसू के अवसर पर विशेष आयोजन होते हैं। लोग एक साथ नाचते-गाते और त्योहार मनाते हैं। कुछ ऐसा है टुसू पर्व का महत्व टुसू झारखंड के प्रमुख त्योहारों में से एक है। यह पंचपरगना क्षेत्र में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। मकर संक्राति से शुरू होनेवाला यह पर्व करीब एक महीने तक चलता है। इसके आखिरी के चार दिनों में काफी धूमधाम से आयोजन होता है। यह मुख्य रूप से कुरमाली और झारखंड के आदिवासियों में टुसू पर्व, मकर पर्व और पूस पर्व तीन नामों से जाना जाता है। इसे जाड़े की फसल कट जाने के बाद पूस में मनाया जाता है। मगर तैयारी 14 दिसंबर से आदिवासी लड़किया शुरू कर देती हैं।
टुसू पर्व झारखंड के साथ बंगाल और छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में भी मनाया जाता है। राची सहित पंचपरगना के विभिन्न इलाकों में टुसू पर्व का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन में राची और आसपास के इलाके के लोग अपना टुसू लेकर आते हैं। टुसू का निर्माण कपड़े और बास से किया जाता है। अपनी रंगीन झाकियों के साथ आदिवासी समाज के लोग पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ नृत्य करते हैं। टुसू पर्व के लिए अलग गीत भी हैं। इसके भी दो प्रकार हैं। एक प्रकार के गीत 14 दिसंबर से 14 जनवरी तक टुसू को जगाने के लिए गाए जाते हैं। जो गीत गाए जाते हैं, उसमें टुसू की महिमा और महत्व को बताया जाता है। इसके साथ ही अगले वर्ष फिर आने की प्रार्थना की जाती है। नारी सशक्तीकरण का प्रतीक
जनजातीय भाषा विभाग राची विवि के पूर्व विभागध्यक्ष डा. गिरिधारी राम गौंझू के अनुसार टुसू की कई कथाएं हैं जो स्थान भेद से बदल जाती हैं। टुसू एक तरह से नारी सशक्तीकरण का प्रतीक है। टुसू का अर्थ होता है कुंवारी। इस पर्व में किसी कर्मकाड की चर्चा लिखित स्त्रोत में नहीं मिलती है। मगर यह जीवन से पूर्ण और रंगीन त्योहार है। इसके लिए बड़े-बड़े रंगीन टुसू को सजाया जाता है। कुरमाली और आदिवासी समाज के लोगों द्वारा सुबह नदी में स्नान कर उगते सूरज को अर्घ्य देकर टुसू की पूजा की जाती है तथा नववर्ष की समृद्धि और खुशहाली की कामना की जाती है।
अगहन पूíणमा से हो जाती है शुरुआत
पर्व की शुरुआत अगहन पूíणमा के दिन से हो जाती है। इस दिन ढकनी/सौरा की स्थापना कर रोज शाम गांव की औरतें और लड़कियां टुसु की आराधना करते हुए गीत गाती हैं। यह पूरा एक महीना चलता है। इस दौरान पूरा माहौल संगीतमय हो जाता हैं। टुसू के बाद से सूर्य देव उत्तरायण होते हैं। इसके बाद से धर्म के हिसाब से मागलिक कार्य शुरू होते हैं। टुसू के विसर्जन के बाद आदिवासी समाज के लोग अपनी विवाहिता बेटियों से मिलने जाते हैं।