पढ़ें, झारखंड की राजनीति की अंदरुनी गतिविधियां
हुजूर ने समापन भाषण सुनकर जाने की अपील क्या की, कई माननीय सदन से निकलते ही रास्ता तलाशने लगे।
मौका मिला तो भूल गए
हुजूर ने समापन भाषण सुनकर जाने की अपील क्या की, कई माननीय सदन से बाहर निकलने का रास्ता तलाशने लगे। कुछ चुपके से निकल गए तो कुछ बहाना बनाकर चल दिए। ताक में शाह भी थे, नजदीक के बीमार रिश्तेदार से मिलने अस्पताल जाना था। सो, सदन में अपनी बात रखने का अवसर जल्द देने की अर्जी डाल दी। स्पीकर ने भी मामले की गंभीरता समझी और अन्य माननीयों को नजरअंदाज कर उन्हें खड़ा कर दिया। हुजूर ने अवसर क्या दिया, मानों बोलने की आजादी मिल गई, बीमार रिश्तेदार को भूल गए। यह देख हुजूर का धैर्य जवाब दे गया। कह ही डाला, नेता से पार पाना मुश्किल है। ये सुधर जाएं तो देश सुधर जाए। शाह भाप गए, बोलती बंद हो गई।
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मौका मिलते ही चालीसा शुरू
माननीय को जब भी मौका मिलता है तो अपने 'मुखिया' को महिमामंडित करने से नहीं चूकते। कब पता क्या काम पड़ जाए।
कई काम तो पाइपलाइन में भी हैं। राजनीति में आगे भी जो बढ़ना है। सो, बजट को लेकर चल रही राज्य की सबसे बड़ी पंचायत में जब भी मौका मिला तो इससे चुके नहीं। जब भी बोलने का मौका मिला चालीसा शुरू कर दी। 'हां' पक्ष का पूरा बीड़ा ये माननीय उठाए हुए थे। 'ना' पक्ष ने जब भी मुखिया जी के विरुद्ध बोलने की हिमाकत की, ये एक-साथ उठकर उसकी आवाज को दबाने में जुट जाते। इसमें सफल भी रहे। बेचारे डॉक्टर साहेब को तो बोलने का मौका तक ही नहीं दिया।
काम भी हो जाए, लाठी भी न टूटे
न्याय के सबसे बड़े मंदिर ने काली कोट वालों की हड़ताल पर रोक लगा दी है, लेकिन ये भी ठहरे कानून के खिलाड़ी। अपने कल्याण के लिए विरोध करने को तैयार है, लेकिन ऐसा तिकड़म लगाया है, कि काम भी हो जाए कानून भी न टूटे। करीब डेढ़ दिन काली कोट वाले न्याय के मंदिर में हाजिरी नहीं लगाएं, लेकिन कहते फिर रहे हैं हड़ताल नहीं है। अब कौन समझाए कि जब वे विरोध मार्च करेंगे तो कोर्ट में काम कौन करेगा।
शब्दों का ऐसा मायाजाल फैला रहे हैं कि लग रहा एक साथ दो जगहों पर एक ही समय में प्रकट रहेंगे। कुछ दबी जबान से स्वीकार कर रहे हैं कि विरोध का आइडिया देने वाले संगठन के मुखिया निर्वाचित तो नहीं हैं, फूंक कर कदम रख रहें है, कहीं न्याय के देवता का प्रकोप न झेलना पड़े।