मैं स्वर्णरेखा... पढ़ें जीवनदायिनी की दिलचस्प कहानी Ranchi News
Jharkhand. मैं झारखंड की जीवनरेखा हूं मैं स्वर्णरेखा हूं। मैंने न जाने कितनों की प्यास और भूख मिटाई। लेकिन आज मैं खुद लड़ रही हूं संघर्ष कर रही हूं अपना वजूद बचाने को।
रांची, [प्रदीप सिंह]। मुझे सुनो, मुझे समझो। मैं झारखंड की जीवनरेखा हूं, मैं स्वर्णरेखा हूं। जानते हो, महाभारत काल में जब पांडवों की माता कुंती को प्यास लगी तो वीर धनुर्धारी अर्जुन ने मुझे तीर मारकर पाताल से बाहर निकाला। कहते हैं पानी की तेज धार में सोने के भी अंश निकले, तभी तो मैं स्वर्णरेखा कहलाई। तब से मैंने न जाने कितनों की प्यास और भूख मिटाई। लेकिन आज मैं खुद लड़ रही हूं, संघर्ष कर रही हूं अपना वजूद बचाने को, ताकि मेरे आसरे पलने वाले पेट, सिंचिंत होने वाली जमीन बंजर न हो।
आओ, निहारो मुझे। डर लगता है, मैं झारखंड की खूबसूरत वादियों में बल खाकर बहने वाली स्वर्णरेखा फल्गु की तरह अंत सलिला न हो जाऊं। ज्यादा दूर नहीं हूं आपसे। गुमला के रास्ते में पिस्का नगड़ी के पास उद्गम है मेरा। एक चुआं के रूप में, कुएं के रूप में। लेकिन 41 डिग्री तापमान में भी मैं कभी नहीं सूखती। जेठ की दोपहरिया में आओ, बैठकर तो देखो मेरी गोद में। माता समान स्नेहिल थपकी का आभास न हो तो मुझे कहना। लबालब भरी हूं मैं कुएं के रूप में और यही है मेरा स्वरूप।
लेकिन हाय री किस्मत, यहीं से निकलकर मैं यहीं समाप्त दिखती हूं। जरा चलो तो मेरे किनारे, आओ, मेरी ऊंगली पकड़ लो। धूप बहुत लग रही होगी तुम्हें, मेरे आसपास पेड़ होते तो तुम्हे पीड़ा नहीं होती सूर्य की चुभती किरणों से। थक जाना तो बैठ लेना, लेकिन कहां बैठोगे। संभलकर चलना, लेकिन जब मेरे समीप आए हो तो सुनाऊंगी अपनी पीड़ा। सुनना भी होगा तुम्हें। तुम्हारा भविष्य मैं हूं। वर्तमान और गुजरा हुआ कल भी मेरी आंखों के सामने है। सुना, रांची में पानी के लिए चाकूबाजी हुई।
अब भी समय है, संभल जाओ। देखो, मैं तो भीतर ही भीतर बहती हूं। रास्ता जो रोक दिया है मेरा। लेकिन ये खेत हरे-भरे दिखते हैं तो सोचो किसकी वजह से। किसानों के चेहरे की चमक देखती हूं तो अपना दर्द भूल जाती हूं। अरे मैं नदी हूं, अपना जल खुद नहीं पीती। धरा को तृप्त करने के लिए बहती हूं कहीं ऊपर तो कहीं नीचे। कुछ मांगती नहीं किसी से, मेरा जन्म ही हुआ है देने के लिए। चाहती हूं धरा को सबकुछ दूं, पर देखो सामने मेरी छाती पर बैठा क्रशर। पास में आटा और चावल का मिल।
सच कहती हूं, इसकी गंदगी से दम घुटता है मेरा। मैं तो इसी कुएं से सींचती हूं झारखंड को। भीतर ही भीतर बहती चली जाती हूं दूर तक। कितनों के पाप-पुण्य धोते, कितनों को मुक्तिधाम पहुंचाते। दो किलोमीटर चलने के बाद ये देखो नगड़ी का मुक्तिधाम। सोच में पड़ गए यहां पानी देखकर। अरे कहा तो मैंने, बहती हूं अपनों के लिए। लेकिन यहां तो मेरी ही पेट को लोगों ने मुक्ति का साधन बना दिया। सारा कूड़ा-कचरा मुझे समर्पित और आस बैकुंठलोक की। खैर, बढ़ते हैं आगे, धीरे-धीरे। खेत के बीच से।
चारों तरफ मक्के की हरी भरी फसलें सुकून देती है मुझे। खूब सब्जी उपजता है यहां। मैं जो बहती हूं धरती के नीचे ही नीचे। अभी बहुत दम बचा है मुझमें। पीढिय़ों का बोझ जो ढोना है लेकिन कबतक। ऐसा नहीं कि लोग मुझे मानते नहीं। बहुत पूजते हैं। सारे शुभ काम में सबसे पहले मैं ही पहुंचती हूं सबके घर-आंगन में। मकर-संक्रांति में तो धूम मची रहती है लेकिन जैसे तुम आए मेरी पीड़ा सुनने, वैसा कोई आता नहीं जिसका हाथ पकड़कर मैं थोड़ी दूर चल सकूं। बताऊं कि मैं कलकल बहने वाली धरा के भीतर ही भीतर कैसे सिमट रही हूं।
बता सको तो बताना सबको। अब बलालौंग में देखो मैं कैसे दिखने लगी ऊपर। और देखो, सेंबो में बारह मास मेरे किनारे लोग आते हैं अपनी जरूरतें पूरी करने। खुले में शौच से मुक्ति से लेकर नदी सफाई अभियान तक की हकीकत देखो। नाक पर रूमाल रख लो, किनारे अब तुमसे चला नहीं जाएगा। जैसे-जैसे आबादी के करीब आती हूं, मैं गंदगी अपने दामन में समेटती हूं। जरा देखो तो, कितना बड़ा भंडार बना लिया तुमने मेरे जल से हटिया में। यही खुला रूप है मेरा जो मेरे रास्ते में कई जगह तुम्हें दिखेगा।
लेकिन हमेशा नहीं रहेगा ऐसा रूप मेरा। सिमट रही हूं मैं तेजी से, यही हाल रहा तो मिट भी जाऊंगी। तब मेरे बच्चेे मुझे बहुत याद आएंगे। तुम आये मेरे पास, अच्छा लगा। मेरे रास्ते को बंद मत करो, रासायनिक कचरा मुझे जहरीला बना देगा। थोड़ा बढऩे की कोशिश करती हूं तो रास्ता रोकने को अड़ जाती है जलकुंभी चुटिया और नामकुम में। यहां से मेरा विस्तार नजर आता है लेकिन सूखी नदी आखिरकार धरा के किस काम की रे। मेरी खूबसूरती तो बहने में है अट्टहास करते हुए।
सोना भरे आंचल में अब कचरा ही हमराही
[जितेंद्र सिंह]। रांची से पूर्वी सिंहभूम पहुंचते-पहुंचते मेरे आंचल में इतने विषैले कचरे डाले जाते हैं कि मरणासन्न मैं स्थिति में पहुंच जाती हूं। पिछले कुछ सालों से मैं अपनी अस्मिता, अपनी बिगड़ती सेहत तथा दायित्वों के निर्वाह को लेकर चिंतित हूं। मनुष्य ने मुझे बिना सोचे-विचारे मेरा सर्वनाश करना प्रारंभ कर दिया है। कपाली में तो पूरे मानगो का गंदा पानी सीधे मेरे सीने को चीरता है।
मानो वह मेरे स्वच्छंद विचरण को बेडिय़ों में जकड़ रहा हो। यहां टनों पॉलीथीन जैसे मुझे मुंह चिढ़ाते हैं। यह मेरी मजबूरी है कि बारिश के मौसम में उसे खुद में समेटने को मजबूर हो जाती हूं। इसका असर सीधा पारिस्थतिकी तंत्र पर पड़ता है। लोग मुझे पानी सहेजने वाली माटी से विमुख कर रहे हैं। थोड़ी दूर आगे बढ़ो तो भुइयांडीह में फिर एक गंदा नाला मेरा इंतजार करता है। मानो, पूरे शहर का गंदा पानी अपने आंचल में समेट लेने का मैंने ठेका ले रखा है। उधर, टाटा ब्लूस्कोप के पीछे हजारों टन कचरा मेरा इंतजार करता है।
वह मुझमें प्रवाहित जल को गंदा और जहरीला कर रहा है। मेरे दायित्वों और समुद्र के हिस्से के पानी को जलाशयों में कैद कर रहा है। मेरे पानी की साफ-सफाई से बेखबर है। मानभूम जिले के तीन संगम बिंदुओं के आगे दक्षिण पूर्व की ओर मुड़कर पूर्वी सिंहभूम में बहती हुई पश्चिम बंगाल की खाड़ी में गिरती हूं। मैं सोचती हूं मेरी चिंता से विकासोन्मुखी समाज को हर हाल में अवगत होना चाहिए, क्योंकि हकीकत में मेरा जीवन तो कुदरत के नियमों के पालन करते हुए प्राणीमात्र की खुशहाली के लिये ही हुआ है।
मेरे तट पर पिछले साल जमशेदपुर से धालभूमगढ़ तक लाखों पौधे लगाए गए, लेकिन देखभाल के अभाव में मेरी ही तरह काल के गाल में समाने लगे हैं। कुदरत के नियमों की अनदेखी मेरी बर्बादी है। यह बर्बादी सिर्फ मेरी ही नहीं, संपूर्ण जीवधारियों के अंत का कारण...।
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