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शिव साक्षी हैं मैं मयूराक्षी हूं... सबका कल्याण करती हूं Ranchi News

Jharkhand. मैं मयूराक्षी हूं। बाबा बैद्यनाथ की नगरी देवघर में मेरा जन्म हुआ है। मनुष्य जीवन यात्रा में मैं तुम्हारा साथ देती हूं। लेकिन मैं अपने आपको बचाने को नीचे जाने लगी हूं।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Published: Fri, 21 Jun 2019 02:12 PM (IST)Updated: Fri, 21 Jun 2019 04:57 PM (IST)
शिव साक्षी हैं मैं मयूराक्षी हूं... सबका कल्याण करती हूं Ranchi News
शिव साक्षी हैं मैं मयूराक्षी हूं... सबका कल्याण करती हूं Ranchi News

[आरसी सिन्हा]। शिव साक्षी हैं कि मैं मयूराक्षी हूं। मैं इस बात पर इतराती हूं कि मुझे शिव की साया में उनके चरणरज को माथे पर लगाने का सौभाग्य है। बाबा बैद्यनाथ की नगरी देवघर में मेरा जन्म हुआ है। तपस्वियों का शांत चित्त इलाका जो वनों से आज भी आच्छादित है। वह है त्रिकुटी पर्वत। जिसकी कोख से निकलकर झारखंड के दो जिले देवघर के बाद दुमका का कुल 60 किमी सफर तय कर बंगाल चली जाती हूं। और वहां भगीरथ नदी में समाकर समंदर में गोते लगाती हूं। लोग मुझे मयूराक्षी कहते हैं।

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इसका भी मुझे अभिमान है। मयूर की कंटीली आंखों की तरह मेरी चाल लोगों को दिखती है। मैं इतनी सुंदर हूं...। पर मुझे इस बात का मलाल है कि मेरा उद्गम स्थल गंगोत्री की तरह संकीर्ण हो गया है। इसे देखने वाला कोई नहीं है। मैं बोल नहीं सकती तो क्या तुम मेरी पीड़ा समझ भी नहीं सकते। यह तब, जब तुम जानते हो कि हमसे ही भारतीय सभ्यता है। कल्पना करो, हम इस धरा को छोड़कर चले जाएं तो तुम कैसे जीओगे। चलो मैं यह मान भी लेती हूं कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है। लेकिन मैं तो मां हूं और माता कुमाता नहीं हो सकती।

बूंद-बूंद रहने तक मैं तुम्हें पालती रहूंगी। पहाड़ से निकली हूं। लेकिन मुझे बरसाती नदी भी कहा जाता है। क्योंकि इस मौसम में मेरी पहचान गंगा के उफान के समान हो जाती है। जिस तरह धरती तप रही है, पेड़ कट रहे हैं, बालू उठाया जा रहा है, मैं अपने आपको बचाने के लिए नीचे जाने लगी हूं। हालांकि मैं उतनी नीचे नहीं गई हूं। क्योंकि चट्टान व बालू ने अपने अंजुमन में समेटे रखा है। इसका यह कदापि अर्थ नहीं कि तुम हमारा बार-बार तिरस्कार करो। मेरी सुरक्षा, संरक्षण व संवद्र्धन नहीं करो।

सोचो मेरा उद्गम स्थल ही मिट जाएगा, उसका स्रोत ही मर जाएगा तो त्रिकुट के पहाड़ पर होने वाले अनुष्ठान का क्या होगा। बासंती व शारदीय दुर्गापूजा कैसे होगा। पहाड़ पर आने वाले सैलानियों की प्यास कैसे बुझेगी। बावजूद मैं निश्छल होकर बह रही हूं। बाबा बैद्यनाथ जहां विराज रहे हैं, वहां से 15 किमी दूर पहाड़ की तलहटी में मेरा बसेरा है। कल तक यहां घने जंगल थे, लेकिन विकास ने मेरी सौंदर्यता को नष्ट कर दिया है। वक्त के साथ मेरी धारा चौड़ी होती गई।

किसी ने यह नहीं सोचा कि जब समतल मैदान की ओर मेरी बांहें फैल जाएगी तो मेरा सफर पीड़ादायक हो जाएगा। मेरा वेग वह नहीं रह पाएगा, जिसके लिए मैं जानी जाती हूं। देवघर से दुमका के लिए चलती हूं तो महारो के पास दुमका के लोगों को दिख जाती हूं। यहां के दोनों किनारे कल तक पेड़-पौधे ऐसे थे कि वह दूर से केवल जंगल ही दिखते थे। मैं उसकी आगोश में ऐसे बहती थी, मानो मेरी मां मुझे सहला रही हो। कड़ाके की धूप में भी निर्झर बहती रही। आज भी बह रही हूं। मिट्टी के कटाव से मेरे पेट में जो गाद भर गया है, वह किसी को दिखाई नहीं देता।

हालांकि मैं खुशनसीब हूं कि स्वर्णरेखा व दूसरी नदियों की तरह मुझे कल कारखाने उस कदर प्रदूषित नहीं कर रहे। अभी मैं उससे बची हुई हूं। लेकिन गाद को साफ नहीं करने से मुझे चलने में परेशानी होती है। चाहती हूं कि लाखों नहीं करोड़ों की प्यास बुझा दूं। पर सबके घर नहीं पहुंचने का मलाल है। दुमका के लोग तो हमेशा लेकिन धनबाद, जामताड़ा के रास्ते आगे जाने वाले पथिकों ने मुझे विजयपुर पुल के आगे और पीछे पांच किमी तक देखा होगा तो उन्होंने मेरी दुर्दशा महसूस की होगी। यहां मैं कहीं-कहीं ही नजर आती हूं।

मेरा सोलह श्रृंगार मत छीनो

जानते हो यह क्यों हो रहा है, क्योंकि हमारे कैचमेंट एरिया का ठीक से ट्रीटमेंट नहीं हो रहा। पेड़ों से ही मेरा सोलह श्रृंगार है। मेरे दोनों किनारे हरे भरे पेड़ अधिक से अधिक हों। बालू उठाना छोड़ दो और एक बार सब मिलकर मेरे पेट में भरे गाद को साफ कर दो। यकीन मानो मैं वापस 1947 की तरह बलखाने लगूंगी। भले ही एक और बांध मसानजोर की तरह बांध लेना। परंतु मेरी पीड़ा तो दूर हो जाएगी।

क्या तुम मेरी यह बात मानोगे। वचन दो मैं तुम्हारी मां हूं...। मां और मातृभूमि का ऋण कभी चुकता नहीं होता, यह भी जानते हो। देखो विजयपुर के निकट ही मुक्तिधाम है। यहां आने वाले भी यह नहीं सोचते कि जीवन की यात्रा यहीं पूरी होती है। मनुष्य जीवन में आने से और उसकी यात्रा पूरी करने की शाश्वत यात्रा में भी मैं ही तुम्हारा साथ देती हूं। फिर भी तुम संकल्प नहीं लेते कि अपनी मां की रक्षा करोगे।

किसान मुझे निहारते हैं लेकिन मैं बेबस

दुमका में कल तक पानी के लिए हाहाकार हुआ करता था। जलस्तर इतना नीचे था कि आज भी ग्रामीण इलाके सूख रहे हैं। हमें रोकने की कोशिश ऐसी हुई कि मसानजोर डैम बना दिया गया। 63 साल पहले कनाडा सरकार ने बनवाया था। आज दुमका शहर के डेढ़ लाख लोगों की प्यास हमें रोक कर बुझाई जा रही है।

गांव के लोग भी हमारे रहम पर जी रहे हैं। लेकिन मुझे इस बात का दर्द है कि उन खेतों तक मुझे अभी भी नहीं पहुंचाया गया है जहां इस डैम के माध्यम से मुझे जाना था। किसान मुझे निहारते हैं, धरती माता हमें पुकारती है लेकिन मैं बेबस हूं। हालांकि आज भी नाउम्मीद नहीं। आस पाले हूं कि मेरे बच्चे कभी तो इस मां की सुध लेंगे।

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