1857 में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाले सिंहभूम के शेर थे राजा अर्जुन सिंह, चक्रधरपुर में थी राजधानी
Ranchi News अपनी प्रजा का साथ और सीने में विद्रोह की आग लिए सिंहभूम के राजा अर्जुन सिंह कूद पड़े थे 1857 की क्रांति में। साथी विद्रोहियों की मदद करने के साथ ही उन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। पढ़िए- शैलेंद्र महतो का आलेख...
रांची, (शैलेंद्र महतो)। झारखंड के कोल्हान में शांति का साम्राज्य स्थापित होने तथा कप्तान सर थामस विलकिंसन की चलाई प्रशासनिक मानकी मुंडा व्यवस्था को फलीभूत होने के पहले ही सिंहभूम सिपाही विद्रोह की चपेट में आ गया। 1857 में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाले सिंहभूम के राजा अर्जुन सिंह की राजधानी चक्रधरपुर में थी। रांची एवं हजारीबाग में सिपाही फौजों की बगावत पर रामगढ़ बटालियन की टुकड़ी उन्हें दबाने के लिए भेजी गई, लेकिन ये भी विद्रोही हो गए।
जब चक्रधरपुर छोड़ कोलकाता चला गया था कप्तान सिसमोर
इस खबर से स्थिति कुछ ऐसी हुई कि चाईबासा का प्रधान सहायक आयुक्त कप्तान सिसमोर घबरा गया। वह चाईबासा छोड़कर सरायकेला के राजा चक्रधारी सिंह की शरण में चला गया और कुछ दिनों के बाद सिंहभूम राज्य का जिम्मा चक्रधारी सिंह को सौंपकर स्वयं कप्तान सिसमोर कलकत्ता (कोलकाता) भाग गया। कप्तान की भीरुता से चाईबासा के सिपाही एवं सैन्य दल को रामनाथ सिंह और भगवान सिंह (दोनों सिपाही) की अगुवाई में उत्तेजना तथा हिम्मत मिली।
विद्रोहियों को दी शरण
सिपाही विद्रोहियों ने तीन सितंबर, 1857 को चाईबासा में सरकारी खजाने से 20 हजार रुपए लूट लिए। जेल का फाटक तोड़ दिया और करीबन 250 सैनिक भाग निकले। बागी कैदियों ने रांची स्थित बागियों से मिलने की इच्छा जाहिर की। वे सभी बंदूकें लेकर रांची की ओर बढ़े। उस दिन काफी वर्षा भी हो रही थी, इसलिए चक्रधरपुर की संजय नदी की बाढ़ ने फौज को आगे बढ़ने में बाधा डाल दी। दूसरी ओर इन बागी फौजों के खिलाफ सरायकेला के राजा चक्रधर सिंह और खरसावां के राजा ठाकुर हरि सिंह ने अपने-अपने क्षेत्र की सीमाओं में सैनिकों को रखकर चौकसी बढ़ा दी, ताकि ये बागी सिपाही उनके क्षेत्र में प्रवेश न कर जाएं।
बीमार पड़ चुके थे कई सैनिक
इस परिस्थिति में सिंहभूम के राजा अर्जुन सिंह को दया आ गई और उन्होंने सैनिकों को अपने यहां शरण देने के लिए दीवान जगबंधु पटनायक (जग्गू दीवान) को दो हाथियों के साथ जाने का निर्देश दिया। कई दिनों तक लगातार भारी वर्षा होने के कारण बागी फौज ने चैनपुर गांव के बाबू घाट में दो हाथियों के सहारे पांच दिन में संजय नदी पार कर ली। बागी फौज ने चैनपुर के बाबू (जमींदार) के घर में डेरा जमाया, जहां उनके भोजन की व्यवस्था की गई। कई फौजी बीमार पड़ चुके थे और रांची पहुंचने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए राजा अर्जुन सिंह ने उन्हें अपने पास नौकरी देने का प्रस्ताव दिया। फौजियों ने राजा के यहां नौकरी स्वीकार की और सरकारी खजाने से लूटे 20 हजार रुपए व बंदूकें भी राजा को सौंप दीं। राजा अर्जुन सिंह ने फौजियों की एक सभा की और बोले कि ‘सबका स्वामी ईश्वर है और सारे सिंहभूम में राज करने वाला राजा अर्जुन सिंह है।’
बागी राजा को मिला प्रजा का साथ
16 सितंबर को मुख्य सहायक आयुक्त लेफ्टिनेंट आर.सी. वर्च को कप्तान सिसमोर के बदले नियुक्त किया गया। वर्च ने सिपाही घटनाओं की समीक्षा की और राजा अर्जुन सिंह को बागी करार देकर विद्रोही घोषित कर दिया और गिरफ्तारी का आदेश दे दिया। अंग्रेज शासकों की इस कार्रवाई पर राजा अर्जुन सिंह ने अपना गढ़ छोड़ दिया और अपनी प्रजा कोल-कुड़मी और स्थानीय जनता के साथ समय काटने लगे। सरायकेला, खरसावां के राजा केरा ठाकुर और आनंदपुर के जमींदार अंग्रेज शासकों का साथ दे रहे थे। इस परिस्थितियों में राजा अर्जुन सिंह का सहारा सिर्फ जनता ही थी। वहां की जनता ने चक्रधरपुर से सात किलोमीटर दूर ओटार गांव में एक सभा का आयोजन किया और अंग्रेजों के खिलाफ राजा अर्जुन सिंह का साथ देने का फैसला किया, इस तरह वह विद्रोही नेता ही नहीं, बल्कि जन आंदोलन के नेता बन गए।
आत्मसमर्पण के लिए हुए कई जतन
इधर, 17 जनवरी, 1858 को कर्नल फारस्टर के अधीन शेखावटी बटालियन चाईबासा पहुंची और तीन-चार दिन के बाद सैनिकों ने अर्जुन सिंह के चक्रधरपुर स्थित गढ़ को ध्वस्त कर दिया और बहुत से कोल-कुड़मी और स्थानीय लोगों का कत्ल कर दिया। अंतत: विद्रोही जंगलों तथा पहाड़ी भागों में शरण लेने को बाध्य हो गए। बागी फौजियों में अधिकतर पकड़े गए लोगों को फांसी की सजा मिली तथा जो बूढ़े हो गए थे, उन्हें आजीवन काला पानी की सजा दी गई। इन परिस्थितियों से भी राजा अर्जुन सिंह का विद्रोही मन नहीं पिघला। लेफ्टिनेंट वर्च अत्यंत क्रोधावेश में था और राजा अर्जुन सिंह के विद्रोही तेवर के विरुद्ध उसका रुख बहुत ही कठोर था। राजा अर्जुन सिंह को आत्मसमर्पण कराने के लिए उसने राजा अर्जुन के ससुर मयूरभंज (अभी ओडिशा में) के महाराजा को माध्यम बनाया। अंग्रेज शासकों ने उन्हें भी धमकी दी कि यदि वह अर्जुन सिंह से आत्मसमर्पण नहीं कराते हैं तो उनको भी अपने राज-पाट से हाथ धोना पड़ेगा। परिणामस्वरूप अर्जुन सिंह ने 15 फरवरी, 1858 को अपने अनुयायियों के साथ छोटानागपुर के आयुक्त डाल्टन के समक्ष चक्रधरपुर कैंप में आत्मसमर्पण करने के लिए हामी भर दी। इसी बीच राजा के दो साथी विद्रोही नेता रघुदेव और शामचरण महतो पुलिस के हाथों मारे गए और सिंहभूम का सिपाही विद्रोह बिल्कुल दब गया। मानभूम और सिंहभूम के विद्रोह के दमन के लिए करीब 80 गांवों का ध्वंस किया गया था।
राजबंदी बन बिताया जीवन
अंत में राजा अर्जुन सिंह छोटानागपुर के आयुक्त डाल्टन से मिले और उन्होंने उसके समक्ष लूटे गए खजाने, बंदूकें आदि सुपुर्द कर दीं। राजा अर्जुन सिंह को राजबंदी बना लिया गया और अंग्रेज शासकों ने उन्हें बनारस जेल भेज दिया, जहां 32 साल गुजारने के बाद 1890 में उनकी मृत्यु हो गई। राजा के आत्मसमर्पण के करीब एक साल बाद जग्गू दीवान भी अंग्रेज सैनिकों के हाथों पकड़ा गया। जग्गू दीवान को फांसी दी गई। राजा अर्जुन सिंह के शासन में सिंहभूम राज्य में प्रशासनिक परिवर्तन किया गया। कुछ इलाकों को सरायकेला और खरसावां राज्य क्षेत्र में मिला दिया गया, कोल्हान के अस्तित्व में बिना हस्तक्षेप किए एक नए राज्य पोड़ाहाट का निर्माण किया गया। अर्जुन सिंह के एकमात्र पुत्र कुंवर नरपत सिंह को नवनिर्मित पोड़ाहाट राज्य का राजा घोषित किया गया।
(लेखक जमशेदपुर लोकसभा क्षेत्र के पूर्व सांसद हैं)