Teble Uraon: जानिए कौन थे ठेबले उरांव, जो आदिवासियों के उत्थान के लिए अंग्रेजों से भिड़ गए थे, एक गुमनाम नायक की कहानी
Teble Uraon 1917 में महात्मा गांधी रांची आए तो कई नेताओं से उनकी मुलाकात हुई। ठेबले उरांव की भी भेंट हुई। जब रांची में 1920 में कांग्रेस की स्थापना हुई तो उसी समय ठेबले कांग्रेस के साथ जुड़ गए। इसके बाद उसके हर आंदोलन में पूरी सक्रियता से भाग लिया।
रांची, (संजय कृष्ण)। शिक्षा, सामाजिक उत्थान और आदिवासियों के प्रति जागरूकता के लिए बहुत काम किया झारखंड के ठेबले उरांव ने। गरीबी, बदहाली के बावजूद समाज के शोषित, पीड़ित, किसान आदिवासियों के जीवन के स्तर को ऊंचा उठाने का संकल्प जीवनभर निभाने वाले थे ठेबले उरांव।
टेबले उरांव में साक्षरता की अलख जगाई
अक्सर ऐसे उदाहरण सामने आते हैं, जिनका समाज में योगदान तो बहुत होता है, मगर उस योगदान का उचित मूल्यांकन व प्रचार नहीं हो पाता। ऐसा ही एक नाम हैं ठेबले उरांव। बहुत कम साक्षर होने के बावजूद झारखंड के ठेबले उरांव ने शिक्षा की अलख जगाई। झारखंड में गोरक्षा आंदोलन चलाया। महात्मा गांधी के संपर्क में आए, आदिवासी किसान संगठन बनाकर उन्हें जागरूक करने का काम किया। ऐसे जीवट इंसान थे ठेबले उरांव।
गरीबी में बीता बचपन
ठेबले उरांव का बचपन गरीबी में ही बीता। हालांकि बाद में भी वे जीवनभर सादा जीवन ही जीते रहे। रांची के गुडू रातू में 25 नवंबर, 1863 को जन्मे ठेबले उरांव के पिता का नाम जीता उरांव व मां का नाम पुनी उराइन था। गरीबी ऐसी थी कि मैट्रिक भी नहीं कर पाए, लेकिन अधूरी शिक्षा कभी उनके आत्मविश्वास के आड़े नहीं आई। गरीबी के बावजूद समाज के शोषित, पीड़ित, किसान आदिवासियों के जीवन स्तर को उठाने का जो संकल्प लिया, उसे जीवनभर निभाते रहे। इसके लिए उन्होंने 1915 में उन्नति समाज की स्थापना की। 1930 में छोटानागपुर किसान सभा की स्थापना की। इनके माध्यम से आदिवासी समाज को जागरूक करने का काम किया।
राजनीति में सक्रिय भागीदारी
1917 में महात्मा गांधी रांची आए तो कई नेताओं से उनकी मुलाकात हुई। ठेबले उरांव की भी भेंट हुई। जब रांची में 1920 में कांग्रेस की स्थापना हुई तो उसी समय ठेबले कांग्रेस के साथ जुड़ गए। इसके बाद उसके हर आंदोलन में पूरी सक्रियता से भाग लिया। वे रांची शहर ही नहीं, रांची के ग्रामीण क्षेत्रों बुंडू, तमाड़, सोनाहातू, खूंटी आदि क्षेत्रों में साइकिल से भ्रमण कर सभा करते। 1942 के आंदोलन में भी वे सक्रिय रहे। रांची में विदेशी सामग्रियों की होली जलाने में मुख्य भूमिका निभाने के बाद रांची डिप्टी कमिश्नर जे. डाउटन ने ठेबले को गिरफ्तार करने का फरमान जारी कर दिया। तीन साल तक निगरानी व लुकाछिपी के बाद ठेबले उरांव को पकड़ लिया गया और कुछ महीने की जेल की सजा भी हुई।
अलग राज्य की मांग
जब बंगाल से बिहार अलग हुआ तो उसी समय से झारखंड को भी अलग करने की मांग आदिवासी समाज में उभरने लगी। इसके लिए संगठन की जरूरत थी, जिसके जरिए ब्रिटिश सरकार तक अपनी बात पहुंचाई जा सके। तब छोटानागपुर उन्नति समाज की स्थापना की गई। ठेबले उरांव इसके पहले पहला संस्थापक अध्यक्ष बने। इस संगठन ने सबसे पहले झारखंड को अलग राज्य बनाने की मांग की। ठेबले सरना धर्मावलंबी थे। वे गैर-ईसाई थे पर, सबको साथ लेकर चलने में विश्वास करते थे। 1928 में साइमन कमीशन जब रांची आया तो उसके सामने छोटानागपुर उन्नति समाज ने झारखंड अलग करने के लिए ज्ञापन सौंपा और यहां के लोगों की भावनाओं से अवगत करवाया। जनवरी, 1939 में आदिवासी सभा के नेता ठेबले उरांव, थियोडोर सुरीन, बंदीराम उरांव, इग्नेस बेक आदि ने जयपाल सिंह मुंडा से अपनी दूसरी वार्षिक महासभा की अध्यक्षता करने का आग्रह किया था। उन दिनों जयपाल सिंह मुंडा बीकानेर रियासत में राजस्व मंत्री थे और पटना जाने के क्रम में रांची में ही थे। यह महासभा हरमू नदी के किनारे हिंदपीढ़ी के सभा भवन के मैदान में हुई थी। इस सभा में जयपाल सिंह मुंडा ने छोटानागपुर व संताल परगना को बिहार से अलग करने का प्रस्ताव रखा। तब इसी मैदान में जयपाल सिंह मुंडा को मरंग गोमके यानी महान नेता की उपाधि दी गई थी। इसके बाद संगठन की बागडोर भी जयपाल सिंह मुंडा को सौंप दी गई। 1950 में आदिवासी सभा झारखंड पार्टी में बदल गई।
भूल गए योगदान
ठेबले उरांव कद्दावर नेता थे। प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद से इनकी नजदीकी थी। ठेबले संविधान सभा के भी सदस्य रहे और स्वतंत्र भारत के प्रथम सांसद भी। तत्कालीन बिहार सरकार को भी उन्होंने अपना मार्गदर्शन दिया। बिहार कृषि सलाहकार समिति के सलाहकार रहते हुए अंतरिम सरकार में लोकसभा में उन्होंने अपनी मातृभाषा कुडुख में भाषण दिया था। 1902 में उरांव मुंडा एजुकेशन सोसाइटी का गठन किया। बिहार में राजा और अन्य लोगों द्वारा अन्य किराए पर ली जाने वाली आदिवासी लड़कियों के सामाजिक पतन को रोकने के लिए भी काम किया। जिसके लिए सनातन आदिवासी सभा का गठन किया। कुछ मानते हैं कि इस संगठन के पीछे डा. राजेंद्र प्रसाद की भी भूमिका रही थी। एक जून, 1958 को 95 साल की उम्र में ठेबले उरांव का निधन हो गया। ठेबले उरांव के नाती अशोक उरांव बताते हैं कि यहां जब पहले विश्व युद्ध में ब्रिटिश सैनिकों के लिए रांची से गोमांस जाता था, उस समय ठेबले उरांव ने इसके विरोध में आंदोलन चलाया था। बाद में इसके लिए एक संगठन ही खड़ा कर दिया गया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ठेबले उरांव ने झारखंड के आदिवासियों के उत्थान के लिए काफी काम किया। हालांकि आज उनके योगदान को भुला दिया गया है। इसका प्रमाण है कि आज भी ठेबले उरांव के बारे में कोई ढंग का एक लेख भी नहीं मिलता है।