Tribal Game: बारिश के लिए यहां लोग खलते हैं सेकोर... जानिए, आदिवासियों के पारंपरिक खेल की कहानी
Jharkhand SEKKOR Game झारखंड के कोल्हान में हो आदिवासियों के बीच प्रचलित है सेकोर खेल। बारिश देवता को प्रसन्न करने के लिए अप्रैल से जून के बीच इसे खेलते हैं आदिवासी। प्रत्येक टीम में होते हैं सात खिलाड़ी। आइए जानते हैं इस खेल के बारे में।
रांची, डिजिटल डेस्क। प्रकृति की गोद में बसे झारखंड की पहचान यहां के जंगल और पहाड़ हैं। लेकिन इनमें प्राण फूंकने का काम यहां के आदिवासी ही करते हैं। इन जंगलों और पहाड़ों से बेपनाह इश्क करनेवाले आदिवासियों ने यहां आज भी अपनी संस्कृति, कला और परंपराओं को जीवंत कर रखा है। इनकी विरासत से दुनिया अब भी अंजान है। इनके बीच रहकर इस जीवंतता को आप भी महसूस कर सकते हैं। झारखंड का हर प्रमंडल अपने आप में अद्भुत है। यहां एक प्रमंडल है- कोल्हान। यह हो आदिवासी बहुल क्षेत्र है। पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम और सरायकेला खरसावां जिले से मिलकर बना है। सारंडा का घना जंगल इसी प्रमंडल का हिस्सा है।
अप्रैल से जून के बीच खेला जाता है सेकोर
हो आदिवासी समुदाय के बीच कई अद्भुत परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं। इनकी संस्कृति-कला और परंपराएं ही इनकी पहचान हैं। दुनिया भले ही सरपट भाग रही हो, लेकिन इन्होंने अपनी विरासत को अब भी संभाल रखा है। इन्हीं में एक है- सेकोर। यह एक प्रकार का पारंपरिक खेल है। कोल्हान के गांवों में अब भी आप इस खेल का आनंद उठा सकते हैं। लेकिन अप्रैल से जून के बीच ही। ऐसी मान्यता है कि सेकोर खेल से बारिश के देवता प्रसन्न होते हैं। इस खेल को खेलने से झमाझम बारिश होती है।
दो टीमों के बीच शामिल होते हैं सात खिलाड़ी
सेकोर खेल दो टीमों के बीच खेला जाता है। प्रत्येक टीम में 7 खिलाड़ी होते हैं। यह खेल कम से कम 60 मिनट का होता है। सेकोर खेल मुख्यतः दो प्रकार का होता है। पहला- एक लकड़ी का। दूसरा- गोल पत्थर का। लेकिन वर्तमान में यहां लकड़ी से बने सेकोर से ही आदिवासी इस खेल को खेलते हैं। सेकोर किसी भी लकड़ी से बनाई जा सकती है, लेकिन बारिश लाने के लिए पारंपरिक रूप से यह साल की लकड़ी से बनाई जाती है। इसी से इस खेल को खेला जाता है।
सेकोर से अन्य को मारकर निकालते हैं बाहर
सेकोर को सूती कपड़े से बनी हुई रस्सी से घुमा कर फेंका जाता है। इस खेल में प्रत्येक टीम के खिलाड़ियों को विरोधी टीम के सेकोर को मारकर खेल मैदान से बाहर करना होता है। एक सेकोर को मार कर बाहर निकालने पर खिलाड़ी को पांच अंक मिलते हैं। निर्धारित समय अवधि के अंत में अधिक अंक प्राप्त करने वाली टीम विजेता घोषित की जाती है। जब खेल मैदान में यह खेल खेला जाता है तो देखने वालों की भीड़ लग जाती है। जब भी कोई खिलाड़ी सेकोर को मारकर बाहर कर देता है तो दर्शक तालियां बजाकर उसका उत्साह बढ़ाते हैं।
हो आदिवासी पुरुष ही खेलते हैं यह खेल
सेकोर का अर्थ प्रकृति की दिशा पर घुमना होता है। मान्यता के अनुसार, इस खेल को हो आदिवासी समुदाय के पुरुष ही खेलते हैं। यह देखने में एक बड़े आकार के लट्टू की तरह होता है। लेकिन लट्टू की तरह इसमें कोई कील नहीं होता है। कई आदिवासी खिलाड़ी कुसुम की लकड़ी से भी सेकोर बनाते हैं। चूंकि कोल्हान प्रमंडल क्षेत्र में सारंडा का जंगल भी है। इसलिए यहां साल के पेड़ अधिक संख्या में पाए जाते हैं। सो, यह आदिवासियों को सहज रूप में उपलब्ध हो जाता है। इसलिए साल की लकड़ी से बने सेकोर खेल कर ही ये लोग बारिश बुलाने का उपक्रम करते हैं।
इसलिए झारखंड में बारिश काफी महत्वपूर्ण
मालूम हो कि झारखंड में पानी की भीषण किल्लत है। ऐसे में यहां सिर्फ बारिश के मौसम में ही धान की एकमात्र खेती होती है। शेष महीने खेत बेजान और खाली पड़े रहते हैं। बारिश का मौसम आते ही यहां के आदिवासी खेती में जुट जाते हैं। अपने खेतों से उपजाए गए धान से ही सालों भर गुजारा करते हैं। ऐसे में इनके लिए बारिश काफी मायने रखता है। बारिश नहीं हो तो धान की खेती संभव नहीं है। जैसे ही अप्रैल से जून के बीच भीषण गर्मी पड़ती है, गांव-गांव लोग बारिश देवता को प्रसन्न करने के लिए सेकोर खेलने में जुट जाते हैं।
जब टकराते हैं सेकोर तो होती है बारिश
सेकोर खेल का मैदान सात गुने सात स्क्वायर मीटर का होता है। एक पक्ष के खिलाड़ी मैदान के बीच में सेकोर को इकट्टा रख देते हैं। इसे हो आदिवासी भाषा में अड़वा कहा जाता है। दूसरे पक्ष के खिलाड़ी दक्षिण-पश्चिम दिशा से बारी-बारी से सेकोर को सेकोर द्वारा मारकर बाहर निकालने का प्रयास करते हैं। सबसे अधिक सेकोर निकालने वाली टीम विजेता घोषित की जाती है। सेकोर खेल के दौरान जब सेकोर एक दूसरे से टकराते हैं तो बारिश की संभावना बढ़ जाती है। इस समुदाय के लोगों का ऐसा मानना है।
बोगा और हो के बीच पहली बार खेला गया
ऐसी मान्यता है कि इस खेल को पहली बार बोंगा और हो आदिवासियों के बीच खेला गया था। यह खेल झारखंड में पहली बार गणतंत्र दिवस समारोह में भी शामिल किया गया था। यह बात वर्ष 26 जनवरी 2020 की है। तब इसे आम लोगों ने भी देखा था। इस खेल को संरक्षित करने की बात उठी थी। झारखंड सरकार के खेल मंत्रालय की ओर से इसके बारे में बकायदा एक पुस्तिका भी जारी की गई है। इसमें इस खेल के बारे में विस्तार से बताया गया है। हालांकि, यह खेल अब लुप्त होता जा रहा है। हो आदिवासी समुदाय के लोग चाहते हैं कि सरकार इसे संरक्षित करने की दिशा में पहल करे। राजकीय स्तर पर इस खेल का आयोजन हो।