मजबूत नीति से मटर उत्पादकों के चेहरे पर आएगी हरियाली
राज्य में मटर की अच्छी पैदावार होने के बाद भी किसानों को लागत भर भी नहीं मिल रहा है। सरकार को इस पर नीति बनानी होगी।
जागरण संवाददाता, राची : राज्य में मटर की अच्छी पैदावार होने के बाद भी किसानों को लागत भर भी कीमत नहीं मिल पाता है। किसान बताते हैं कि मटर की फली तोड़ने के 24 घटे के अंदर उसे बेचना एक चुनौतीपूर्ण काम होता है। इससे ज्यादा देर होने पर फली के छिलके सुखने लगते हैं। इससे भाव कम मिलता है। वहीं अगर बाजार में आवक ज्यादा हो गयी तो प्रति किलो भाव 3-4 रुपये पहुंच जाता है। वहीं किसानों की मजबूरी का फायदा बिचौलिये और दलाल भी खुब उठाते हैं। ऐसे में किसान माग कर रहे हैं कि सरकार को धान और गेंहू की तरह सब्जियों का भी न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करना चाहिए। इसके साथ ही प्रखंड और जिला स्तर पर एग्रो इंडस्ट्री की व्यवस्था करनी चाहिए। सरकार यदि चाहे तो इसे कुटीर उद्योग की तरह छोटे-छोटे स्तरों पर लगा सकती है। एग्रो इंडस्ट्री लगाने के लिए रियायत नहीं मजबूत पॉलिसी की है जरूरत::
राज्य में मटर की पैदावार अच्छी होती है। मगर फिर भी हम इसका बड़े व्यावसायिक स्तर पर इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण कमजोर पॉलिसी है। सरकार की तरफ से एग्रो एंड फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के लिए अच्छी सब्सिडी दी जाती है। मगर इससे किसानों का भला कैसे हो, इसका लाभ राज्य की जनता को कैसे मिले ऐसी पॉलिसी का अभाव है। ये कहना है झारखंड एग्रो चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष आनंद कोठारी का। उन्होंने बताया कि सरकार के द्वारा लोक कल्याण के लिए मदर डेयरी को करोड़ों की जमीन एग्रो इंडस्ट्रीज लगाने के लिए एक रुपये में दी गयी। मगर मदर डेयरी किसानों से बाजार भाव या उससे कम में मटर लेता है। सरकार को इसके लिए अब एक न्यूनतम मूल्य का निर्धारण करना होगा। इसके साथ ही पैक फूड की सबसे बड़ी खपत खुद सरकार के यहा हो सकती है। जैसे मिड डे मिल, सरकारी अस्पताल आदि में तय किया जाये की फ्रोजेन फूड बनेगा तो निश्चित रुप से बाजार में माग बढ़ने से और कंपनिया सामने आयेगी। बड़ा निवेश के बाद मुनाफा अनिश्चित::
श्री अंबाजी फूड प्रा लि. के मालिक तनय अग्रवाल बताते हैं कि फूड पैकेजिंग इंडस्ट्री लगाने के लिए कम से कम 15-20 करोड़ रुपये के निवेश की जरूरत है। नगड़ी में मदर डेयरी का प्लांट भी लगभग इतने के ही निवेश से लगाया गया है। इसके अलावा एक फूड पैकेजिंग प्लाट पंडरा में लगाया जा रहा है। यहा से उत्पादन अगले तीन महीने में शुरू हो जायेगा। केवल मटर ही नहीं हम कटहल, भिंडी, बिन्स, गाजर, फूलगोभी, ब्रोक्ली आदि को भी फ्रोजेन रूप में रख सकते हैं। मगर हमारे पास इसका बाजार सीमित है। इससे इतना निवेश के बाद भी इंडस्ट्री में मुनाफा अनिश्चित है। ऐसे में किसानों को भी लाभ देना मुश्किल है। बाजार के विस्तार के बिना संभव नहीं किसान का विकास::
पिठोरिया के प्रगतिशील किसान राजेंद्र साहू बताते हैं कि वो पाच एकड़ में केवल सब्जियों की खेती करते हैं। इसमें मटर का बड़ा हिस्सा होता है। मगर बाजार में सीजन में सही भाव नहीं मिल पाता। जो किसान अपना माल भेजते हैं, उन्हें बिचौलियों के भरोसे रहना पड़ता है। ऐसे में सरकार से हमारी माग है कि बाजार का विस्तार किया जाये। किसान को उसकी उपज का सही भाव नहीं मिलेगा तो वो मटर उपजाना बंद कर देगा। इसके साथ ही सब्जियों की भी धान और गेंहू की तरह सरकारी रेट तय होनी चाहिए। हर जिले में कम से कम दो बड़ी एग्रो इंडस्ट्री होनी चाहिए जहा किसान अपने उत्पाद बेच सके। मटर स्टोर करने की हो व्यवस्था::
दिलीप उराव का पुश्तैनी काम खेती है। कुछ सालों से बाकि सब्जियों से ज्यादा मटर की बुआई करते हैं। अगर सीजन से पहले फली बाजार में पहुंच जाती है तो आमद अच्छी हो जाती है। बाद में बिचौलियों के भरोसे मटर औने-पौने भाव में बेचना पड़ता है। अगर सरकार मदद करे और मटर को स्टोर करने की व्यवस्था हो तो फली तोड़ने के बाद तुरंत बेचने की जल्दी से बच जायेंगे। इसके साथ ही सरकार को खेतों तक पानी पहुंचाने की व्यवस्था पर भी ध्यान देना होगा। बाजार में कई बार किसान को उन्नत किस्म की बीज नहीं मिल पाती। सरकार को फर्जी बीज बेचने वाली कंपनियों पर कार्रवाई करनी चाहिए। इसके साथ ही मौसम की मार से फसल खराब होने पर जल्द से जल्द उचित मुआवजा खाते में दिया जाना चाहिए। ---------------- मजदूरों की राय-----------------------
मैं महाराष्ट्र के रायगढ़ में काम करता था। वहा बड़ी संख्या में छोटे-बड़े एग्रो इंडस्ट्री हैं। सालों काम करके मैंने सारा हुनर सीख लिया है। अब अगर अपने राज्य में काम का मौका मिले तो दूसरे के दरवाजे पर क्यों जायेंगे।
शकर लकड़ा, बेड़ो अब जीवन में दूसरे राज्य में काम करने नहीं जायेंगे। जो काम होगा अपने राज्य में ही करेंगे। सरकार को अब हमारी मदद करनी चाहिए। बिना मदद के हमलोग यहा कुछ नहीं कर पायेंगे।
अमित रोशन कच्छप, बेड़ो बड़े शहर में कमाने जाना मजबूरी है। काम के अभाव और पैसे की जरूरत की वजह से दूसरे राज्य गये थे। अगर अपने घर में काम मिले, भले ही पैसा थोड़ कम मिले तो क्यों नहीं करेंगे।
मंगा उराव, तेतर टोली, बेड़ो कई सालों से महाराष्ट्र में कमा रहे थे। मजबूरी में घर परिवार से दूर थे। इस बार ऐसा सबक सीखा है कि अब दूबारा जाने की हिम्मत नहीं होगी। घर पर ही जो काम मिलेगा करेंगे।
सीता राम लोहरा, बेड़ो हावड़ा में काम करते थे। बड़े शहर में पैसे तो ज्यादा मिलते हैं। पर खर्च भी होता है। अपने घर पर काम मिले तो इससे अच्छा और क्या होगा। हमारे पास उच्च शिक्षा नहीं है। मगर काम करने का हुनर तो है। सरकार को हमारी मदद करनी चाहिए।
राजदेव लोहरा (बिट्टू), बेड़ो