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रांची में जलस्नोतों पर दशकों से काबिज अवैध कब्जाधारियों के खिलाफ पहली बार सख्त कार्रवाई

फिलहाल सबकी नजर उच्च न्यायालय की अगली सुनवाई और निर्देश पर है लेकिन इस दौरान यह स्पष्ट हो गया है कि जलस्नोतों को बचाने की दिशा में अगर गंभीरता से कार्रवाई नहीं की गई तो इसके भयंकर परिणाम होंगे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 26 Feb 2021 09:58 AM (IST)Updated: Fri, 26 Feb 2021 10:01 AM (IST)
रांची में जलस्नोतों पर दशकों से काबिज अवैध कब्जाधारियों के खिलाफ पहली बार सख्त कार्रवाई
रांची के कांके डैम के पास प्रशासन की ओर से हटाया जा रहा अतिक्रमण। जागरण आकाईव

रांची, प्रदीप शुक्ला। झारखंड उच्च न्यायालय की सख्ती के बाद ही सही, रांची में जलस्नोतों पर दशकों से काबिज अवैध कब्जाधारियों के खिलाफ पहली बार सख्त कार्रवाई शुरू तो हुई है। नगर निगम ने बड़ी संख्या में अवैध भवनों को नोटिस जारी किए हैं। कुछ जलस्नोतों पर अवैध भवनों के ध्वस्तीकरण का काम भी शुरू हो चुका है और उसी के साथ राजनीति भी शुरू हो गई है। पार्षद ही नगर निगम की कार्रवाई के विरोध में उतर आए हैं। पूर्व में भी जब किसी प्रशासक ने ऐसे अवैध निर्माणों को ढहाने की कोशिश की, तब राजनीतिक दल ही बाधा बनते रहे हैं। राजनीतिक दलों को शायद इसकी कोई फिक्र नहीं है कि जलस्नोत ही नहीं बचेंगे तो जिस आबादी के लिए वह लड़ाई लड़ रहे हैं उन्हें पेयजल ही उपलब्ध नहीं हो सकेगा। जलस्नोत नहीं होंगे तो शहर का क्या होगा?

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रांची में डैम, तालाबों में एकत्र पानी से ही शहर की प्यास बुझती है। कमोबेश झारखंड के हर जिले की यही स्थिति है। वहीं हर जगह तालाबों, डैमों और नदियों पर अंधाधुंध अतिक्रमण हो रहे हैं। नदियां लुप्त हो रही हैं। तालाबों पर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं खड़ी हो चुकी हैं जो भ्रष्ट प्रशासनिक अफसरों, नेताओं और बिल्डरों की गठजोड़ जीवंत उदाहरण हैं। गर्मी में रांची की बड़ी आबादी पानी की किल्लत से जूझती है। शहर के कई हिस्से ऐसे हैं जहां जलस्तर बहुत नीचे जा चुका है। बावजूद इसके जिम्मेदारों के कान पर जूं नहीं रेंग रही है। भला हो उच्च न्यायालय का जो लगातार जलस्नोतों की चिंता कर रहा है और नगर निगम सहित शासन-प्रशासन को कठघरे में खड़ा कर रहा है।

अदालत के दबाव में कार्रवाई शुरू हुई तो इस मसले पर पार्षद निर्लज्जता की हदें पार कर रहे हैं। यही पार्षद पूरी गर्मी पेयजल संकट को लेकर अफसरों की लानत-मलानत करते हैं और अब जब जलस्नोतों को अवैध कब्जा से मुक्त करवाने की पहल शुरू हुई है तो विरोध पर उतर आए हैं। वैसे तो पूरा झारखंड ही पानी के संकट से जूझ रहा है। यह स्थिति तब है जब यहां वर्ष भर में अच्छी बारिश होती है। राज्य में औसतन 1,100 से 1,400 मिमी बारिश होती है। जल प्रबंधन के अभाव में 80 फीसद पानी बह जाता है और इसका परिणाम है कि बड़ा भूभाग सूखे की चपेट में आ जाता है। नीति आयोग की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2030 तक जमशेदपुर, धनबाद सहित राज्य के कई शहरों में 30 से 70 प्रतिशत तक का अंतर पानी की मांग और आपूíत में आ सकता है। संकट कितना भयावह है इसे इससे भी समझा जा सकता है कि राज्य में पानी की वार्षकि प्रति व्यक्ति उपलब्धता वर्ष 1951 में 5,177 क्यूबिक मीटर थी जो 2021 में 1,700 क्यूबिक मीटर रह गई है। सवाल उठता है कि हम अपने जलस्नोतों को बचाने के प्रति संवेदनशील क्यों नहीं हैं? बड़ी आबादी आसन्न संकट को देखते हुए प्रशासनिक कार्रवाई का समर्थन कर रही है, लेकिन वह जरूरत पड़ने पर सड़क पर क्यों नहीं उतरती है? हर दल पेयजल मुहैया करवाने की बात कहता है, लेकिन अवैध कब्जों के खिलाफ मुखर होकर क्यों नहीं बोलता? कारण से भी सभी भलीभांति वाकिफ हैं, क्योंकि ज्यादातर अवैध निर्माण में ऐसे रसूखदार शामिल होते हैं जिन्हें राजनीतिक दलों का संरक्षण भी प्राप्त होता है। अवैध कब्जों का असर बारिश के दिनों में भी दिखता है, जब रिहायशी इलाके डूब क्षेत्र में आ जाते हैं।

देर से ही सही, उच्च न्यायालय के तल्ख तेवर को देखते हुए कांके डैम के आसपास के अवैध भवनों को तोड़ा जा जा रहा है। बड़ा तालाब के आसपास काबिज अवैध कब्जेदारों में नोटिस से हड़कंप मचा हुआ है। जलस्नोत का अतिक्रमण दंडनीय है और उच्च न्यायालय ने इसके अतिक्रमण को लेकर जो सवाल खड़े किए हैं, उसका जवाब रांची नगर निगम के अफसरों को नहीं सूझ रहा है। निगम यह बता पाने की स्थिति में नहीं है कि पिछले 30 वर्षो में रांची और उसके आसपास कितने जलस्त्रोत थे और फिलहाल उसमें कितने अस्तित्व में हैं? अदालत ने यह भी पूछा है कि तालाब में कचरा जाने से रोकने को क्या उपाय किए जा रहे हैं और जलस्नोतों को बचाने के लिए नगर निगम के पास क्या योजनाएं है? नगर निगम प्रशासन अब पीछे हटने को तैयार नहीं है। उसे अगली सुनवाई में उच्च न्यायालय को बताना है कि अवैध कब्जों के खिलाफ क्या ठोस कार्रवाई की है। लेकिन इतने भर से ही बात नहीं बनने वाली है।

[स्थानीय संपादक, झारखंड]


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