संस्कारों में कमी की हो विवेचना : अर्जुन मुंडा
लोकमंथन के वैचारिक सत्रों में समाज के प्रति चिंता और पारंपरिक मान्यताओं को ल
राज्य ब्यूरो, रांची
लोकमंथन के वैचारिक सत्रों में समाज के प्रति चिंता और पारंपरिक मान्यताओं को लेकर चल रहे द्वंद्व पर शुक्रवार को व्यापक विमर्श हुआ। समाज अवलोकन विषय पर पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि आज यह विवेचना का विषय है कि हमारे संस्कारों में कमी आई है। यह विचार करना चाहिए कि हमारा वंशानुगत जातीय और शासकीय समाज क्या है? हमारा एक भारतीय समाज है जो हमें दूसरों से अलग करता है। आदिवासी समाज में सामाजिक व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था एक साथ चलती है। जो हमारे संस्कार हैं उसका सबको बोध होना चाहिए और उसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जंगल में रहने वाला ही जंगल को समझ सकता है। पर्यावरण का स्वरूप आदिवासी जीवन पद्धति में है, जिसमें सुविधा कम है लेकिन आनंद है। हम बात तो देश की कर रहे हैं पर काम दुनिया की कर रहे हैं क्योंकि दुनिया हमें बाजार बना रही है और हमें हर चीज को झेलने के लिए मजबूर कर रही है। यह हमारी आत्मसंतोषी विचारधारा को खत्म कर रही है और जिसके कारण हम दोनों तरफ से धर्म की दृष्टि से भी और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से भी कमजोरी महसूस कर रहे हैं।
डा. कौशल पंवार ने उठाए तीखे सवाल
प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक डा. कौशल पंवार ने कहा कि जबतक हम सारी की सारी अस्मिताओं को इकट्ठा कर एक समान नजरिए से नहीं देखेंगे, अस्मिताओं के सवाल को साझा मंच लेकर विमर्श तक नहीं लेकर आएंगे तबतक हम सुखी और आनंदित नहीं हो पाएंगे। सर्वे भवंतु सुखिन: तभी संभव होगा जब हम सारी अस्मिताओं को एक मंच पर लाकर इकट्ठा करेंगे। उन्होंने समाज को अपने नजरिए से तीन भागों में बाटते हुए कहा कि पहला शास्त्रीय समाज होता है जो परंपराओं से चलता है। दूसरा व्यवहारिक समाज होता है जो पारिवारिक अनुभूतियों के सहारे चलता है और तीसरा वैधानिक समाज होता है जो नियम-कानूनों के सहारे चलता है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब वैदिक काल से सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया की बात हो रही है तो यह व्यवहार में क्यों नहीं है? हमारे समाज में वर्ण और जाति का भेदभाव आखिर क्यों है?
जल, जंगल, जमीन, जानवर भी अलग नहीं : उमेश उपाध्याय
विषय की प्रस्तावना रखते हुए उमेश उपाध्याय ने कहा कि हमारा समाज सर्वसमावेशी है। जल, जंगल, जमीन और जानवर भी हमारे चिंतन का हिस्सा हैं। हम उसे अलग नहीं कर सकते। हम गाय-बंदर की भी पूजा करते हैं। पावर का तंत्र समाज में है। यही समाज की दृष्टि है जिसे तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। हमने पाठ्यक्रम जरूर बदल लिए लेकिन समाज नहीं बदला। हिन्दुत्व या भारतीयत्व कभी राज व्यवस्था पर आश्रित नहीं रहा। इसे समाज ने जिंदा रखा है। हम पीछे का चश्मा लगाकर नहीं बैठें, आज की परिस्थिति पर चर्चा करें। समाज के सामने चुनौती है कि वह सनातन मूल्यों को कैसे बरकरार रखे।