झारखंड के संताल आदिवासियों की विरासत चादर-बादोनी, मन मोह लेंगी अंगुलियों पर थिरकतीं कठपुतलियां
Jharkhand Unique Heritage कठपुतली कला केवल राजस्थान की विरासत नहीं है। झारखंड के संताल आदिवासियों के बीच भी यह कला चादर-बोदनी के नाम से चर्चित है। झारखंड में लुप्त हो चली इस कला को सहेजने की अब कवायद चल रही है। इसका प्रदर्शन भादो व आश्विन मास में होता है।
दुमका, {राजीव}। संताल परगना की आदिवासी कठपुतली लोककला चादर-बादोनी के जीवित होने की आस फिर से जगने लगी है। इसके लिए दुमका के मसलिया के नवासार गांव में अब हलचल है। अपने पिता लुखीन मुर्मू की 30-35 साल पूर्व छोड़े गए इस विरासत को नए सिरे सवार रहे हैं उनके पुत्र मानेश्वर मुर्मू एवं इनके साथी बाबूधन मुर्मू, सोनाधन मुर्मू, शिवधन मुर्मू एवं बोरो मुर्मू। जबकि लुखीन के बड़े पुत्र भुलू मुर्मू ने इस कला को नए सिरे से संवारने की पहल पहली बार वर्ष 2009-10 में दुमका के जनमत शोध संस्थान के साथ मिलकर की थी। मानेवश्वर बताते हैं कि चादर-बादोनी कठपुतली कला को लोग भूल चुके थे लेकिन इसमें नए सिरे से जान फूंकने की पहल शुरू हुई है जिसके बेहतर परिणाम सामने आने लगे हैं।
शोध के बाद कठपुलती कला में जान डालने का प्रयास
जनमत शोध संस्थान के सचिव अशोक कुमार बताते हैं कि जब उन्हें इस लोक कला के बारे में पहली बार नवासर गांव के स्व.लुखीन मुर्मू के पुत्र भुलू मुर्मू ने चर्चा की तो ऐसा लगा कि इस लोक कला को बचाने की जरूरत है। तब इसके लिए झारखंड के कला संस्कृति विभाग के वित्तीय सहयोग से वर्ष 2009-10 में ही शोध कर इस कला में जान फूंकने की पहल तेज की गई। अब धीरे-धीर नतीजा सामने आ रहा है। बीते वर्ष लाकडाउन के दौरान जामा के नवाडीह शिव नगर में रहने वाले सरकारी सेवक संतोष मुर्मू ने 30 हजार रुपये में कठपुतलियों का एक सेट खरीदा है। एक सेट में 11 से 17 कठपुतलियां होती हैं। ये कठपुतलियां मानेवश्वर मुर्मू एवं उनके साथियों ने मिलकर तैयार किया है। ये कठपुतलियां लकड़ी से तैयार की गई है।
क्या है चादर-बादोनी आदिवासी कठपुतली कला
आदिवासी कठपुतली लोक कला चदर-बदर को ही चादर बदोनी कला के नाम से पुकारा जाता है। चदर-बदर आदिवासी समुदाय की एक परंपरागत कठपुतली लोक कला है। मुख्य रूप से झारखंड के संताल परगना एवं पश्चिम बंगाल के झारखंड सीमावर्ती इलाके से सटे आदिवासी बहुल इलाकों में कभी काफी प्रचलित व लोकप्रिय रही थी, लेकिन हाल के दशक में यह विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी है। कठपुतली आदिवासी लोक कला कहीं क्षेत्र विशेष के क्षेत्रीय टोन की वजह से ‘चादर-बादोयनी तो कहीं छादर-बादरनी के नाम से भी पुकारा जाता है। ऐसा माना जाता है कि संताली भाषा के इस शब्द पर बंगला भाषा का गहरा प्रभाव है। इससे जुड़े कलाकार इसका प्रदर्शन भादो व आश्विन मास विशेषकर दुर्गापूजा के आस-पास के समय में गांव-गांव घूम कर किया करते थे। दुर्गा पूजा के सप्तमी से दसमीं तक कठपुतली नृत्य की परंपरा थी।
मांदर, नगाड़ा, झाल, करताल पर नाचती है कठपुतली
इनके साथ गाने-बजाने वाले कलाकारों का भी एक दल होता था जो मांदर, नगाड़ा, झाल, करताल के साथ वेशभूषा में लैस होते थे। विशेषकर माथे की पगड़ी इतने कलात्मक ढंग से बंधी होती थी कि लोग उस दल से आकर्षित होते थे और पूरे गांव में इनके पीछे-पीछे घूमते थे। ये कलाकार प्रदर्शन के दौरान चदर-बदर के चारों ओर घूम-घूम कर गीत-संगीत के साथ नाचते-गाते थे और लोगों का मनोरंजन कर कुछ महत्वपूर्ण संदेश देते थे। इसके मूल में मुख्यतः यह बात होती थी कि हम सब इस संसार की कठपुतलियां हैं, जिसका सूत्र एकमात्र ईश्वर के हाथों में है और इसी के इशारे पर हम सब अपना-अपना कर्तव्य कर जीवन जीते हैं। कलाकारों को ग्रामीण मेहनताना के तौर पर अनाज व कुछ पैसे देते थे। अब इस कला का प्रदर्शन नहीं हो रहा है लेकिन मानेश्वर व उनके साथी इसमें फिर से जान फूंकने में जुटे हैं।
अद्भुत तकनीकी कला है चादर-बादोनी
कला व संस्कृति के क्षेत्र लंबे अर्से से काम करने वाले विशेषज्ञ रविकांत द्विवेदी बताते हैं कि चदर-बदर की बनावट इतनी कलात्मक, अद्भुत और तकनीकिपूर्ण होती थी कि एकमात्र डोरी से दर्जन भर कठपुतलियां अलग-अलग मुद्राओं में नृत्य करती नजर आती और इसमें आदिवासी जीवन व संस्कृति की विविध रंगी छंटा दिखती थी। कठपुतलियों की बनावट यहां तक कि उसकी मुखाकृतियां, रंग-रोगन एवं वेश-भूषा और कार्यकलाप तक संताल आदिवासी जीवन पर आधारित होते थे। इसको बनाने वाले कलाकार इससे जुड़े होते थे। रविकांत के मुताबिक आकार-प्रकार, साज-सज्जा और संचालन की तकनीक के लिहाज से सभी प्रकार की कठपुतलियों की बनावट भिन्न-भिन्न होती है। चदर-बदर की निर्माण प्रक्रिया और बनावट अपने मूल रूप में लगभग एक होकर भी कई मायने में एक-दूसरी कठपुतली कला से बिल्कुल अलग है। जनमत के अशोक कहते हैं कि चदर-बदर का पूरा सेट लकड़ी के ऐसे प्लेटफार्म का बना होता है जिसके नीचे लगभग तीन से साढ़े तीन फीट का एक बांस लगा होता है। सेट का ऊपरी हिस्सा लकड़ी के वृत्ताकार फ्रेम का बना होता है। जिसके प्लेटफार्म पर पंक्तियों में सजी लकड़ी या काठ की लगभग 11 से 17 कठपुतलियां फिट की हुई होती हैं। सेट के नीचले हिस्से में संचालन का पूरा तंत्र लगा होता है। सेट के नीचे लगे बांस की खोली से एक डोर निकली होती है। जिसे खींचने से सेट पर बंधी कठपुतलियां विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करती हैं।
शोध अध्ययन के बाद मिलने लगी फिर से पहचान
जनमत शोध संस्थान के शोध अध्ययन के बाद इस परंपरागत लोक कला को फिर से पहचान मिलने लगी है। जनमत के अशोक कुमार सिंह बताते हैं कि शोध अध्ययन के बाद 2011 में दिल्ली के प्रगति मैदान में सरकार की ओर से आयोजित पपेटरी महोत्सव में मानेश्वर व उनके साथी आमंत्रण पर गए थे। तकरीबन एक माह वहां रहकर इनके द्वारा तैयार चादर-बादोनी कठपुतलियों का सेट इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट ने म्यूजियम में रखने के लिए खरीदा था। केंद्रीय वस्त्र मंत्रालय के हस्तशिल्प विभाग ने इन कलाकारों का आर्टीजन कार्ड बनवा कर अपने साथ जोड़ लिया है। अब इन कलाकारों को विभिन्न कार्यशालाओं में आमंत्रित किया जा रहा है जो उत्साहजनक है। वहीं कलाकार मानेश्वर कहते हैं कि सरकार को इस लुप्त हो रहे कला को बचाने के लिए और गंभीर प्रयास करने की दरकार शेष है।