नजरिया : पारा शिक्षक-सरकार टकराव में आखिर क्यों दोराहे पर खड़े हैं दोनों
सरकार और पारा शिक्षकों में टकराव की राजनीति से स्थिति बिगड़ गई है। जिसका खामियाजा हजारों बच्चे भुगत रहे हैं। दोनों पक्षों को सर्वमान्य हल निकालना चाहिए।
रांची, किशोर झा। पारा शिक्षकों और सरकार के बीच सीधी लड़ाई में बच्चों का भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है। जीत चाहे किसी भी पक्ष की हो, राज्य के गरीब परिवारों के बच्चों का हित प्रभावित होना तय है। उनकी पढ़ाई ठप है। पारा शिक्षक मांगों को लेकर और सरकार उनके रवैये के खिलाफ अपने-अपने रुख पर अडिग हैैं और बच्चे असहाय।
जरूरत इस बात की है कि बच्चों के भविष्य को देखते हुए दोनों पक्षों को कानून सम्मत सर्वमान्य हल निकालना चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि समान कार्य के लिए समान वेतन किसी भी कर्मचारी का मौलिक अधिकार है और इस लिहाज से पारा शिक्षकों की मांग जायज है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है कि काम (शिक्षा) की गुणवत्ता। राज्य में सरकारी स्कूलों की जो हालत है, वह किसी से छिपी नहीं है।
उन स्कूलों के शिक्षक भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाते हैैं। इसके लिए सरकारी नीति तो जिम्मेदार है ही, शिक्षक भी अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते हैैं। यह कड़वी सच्चाई है कि पारा शिक्षकों की नियुक्ति के दौरान कई अयोग्य और सिफारिशी लोगों को भी नियुक्त कर लिया गया है। उस दौरान न तो पात्रता का ध्यान रखा गया और न नियुक्ति के आवश्यक मानकों का।
जो लोग पात्र हैैं, उन्हें तो हक मिलना ही चाहिए लेकिन क्या अपात्र भी सारी सुविधा के हकदार हैैं, इस पर भी विचार होना चाहिए। हालांकि पारा शिक्षकों के मामले में इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जिन्होंने अपने जीवन के कई साल शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए होम कर दिए हैैं, वे अब अधेड़ उम्र में कौन सा नया काम करेंगे? यदि दूसरा काम नहीं करेंगे तो इसमें उनके लिए भविष्य क्या है?
चिंताजनक बात यह है कि इस अहम मसले को हल करने में वार्ता का क्रम टूट चुका है और उसके पुन: शुरू होने की गुंजाइश फिलहाल नहीं दिख रही है। पारा शिक्षकों के उग्र आंदोलन से एक दिन पहले तक दोनों पक्षों में लगातार वार्ता चल रही थी। बहुत कम मुद्दों पर असहमति थी। फिर यह भगवान बिरसा मुंडा की जयंती एवं राज्य स्थापना दिवस के पावन अवसर पर हिंसक आंदोलन की जरूरत क्यों आन पड़ी?
यही वह बिंदु है जिसके बाद बातचीत के रास्ते लगभग बंद हो गए। कई नेता गंभीर आपराधिक धाराओं में जेल में बंद हैैं और बाकी कार्रवाई के डर से भूमिगत। ऐसे में बातचीत होगी भी तो कैसे? जाहिर है कि दोनों तरफ से बिना संवाद के सिर्फ कार्रवाई का ऐलान हो रहा है। ऐसी स्थिति को राज्य और लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता है।
दोनों पक्षों को खुले मन से सारे विकल्प के साथ बातचीत के लिए सामने आना चाहिए। पारा शिक्षकों को नियुक्ति प्रक्रिया के साथ ही मांगों की पूर्ति के कानूनी संभावनाओं के साथ पड़ोसी राज्यों छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड की पूरी स्थिति का आकलन करना चाहिए। उन्हें यह भी देखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का रुख कैसा था।
दूसरी ओर सरकार को भी चाहिए कि वह ऐसा रास्ता निकाले ताकि पारा शिक्षकों की समस्याओं का स्थायी रूप से समाधान हो सके। इसके लिए उसे पारा शिक्षकों के ही प्रतिनिधियों के साथ उच्चस्तरीय कमेटी का गठन करना चाहिए और पड़ोसी राज्यों की स्थिति का अध्ययन कर ऐसी ठोस व्यवस्था करनी चाहिए। जिसमें बच्चे और शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के साथ-साथ पारा शिक्षकों के हित भी सुरक्षित हो सकें।