मैंने गांधी को देखा : पहली बार चार जून 1917 को रांची आए थे बापू
महात्मा गांधी ने चंपारण आंदोलन की रूप-रेखा रांची में रहकर ही तय की थी।
रांची, संजय कृष्ण। मैं रांची हूं। झारखंड की राजधानी। जब बिहार था, तब भी मुझे ग्रीष्मकालीन राजधानी का ओहदा मिला था। यहां की आबोहवा को देखकर ही अंग्रेजों ने इसे सजाया-संवारा और अपना एक प्रशासनिक ठिकाना बनाया। कलकत्ता पास होने के कारण सैकड़ों भद्र बंगालियों ने रांची की इस पठार पर अपनी कोठियां खड़ी कीं।
उन्हें नहीं पता था कि यह पठार कितना पुराना है? बाहर से लोग आते हैं, और पहाड़ी मंदिर से शहर का खूबसूरत नजारा देखते हैं, उन्हें भी नहीं पता कि यह पहाड़ी हिमालय से करोड़ों साल पुरानी है और इस पहाड़ी पर अंग्रेज आजादी के दीवानों को फांसी पर लटका दिया करते थे। इसलिए इसका एक नाम फांसी टुंगरी भी पड़ गया। वैसे, हर गली-मुहल्ले में आजादी के किस्से मिल जाएंगे। शहीद चौक के पास 1857 के वीरों को फांसी पर लटका दिया गया।
जब, रांची छोटी थी, लेकिन इसका विस्तार बहुत था। कहानियां बहुत हैं, क्या-क्या सुनाऊं? पर, आज जो कहानी सुनाने जा रही हूं, वह बापू से संबंधित है। वही बापू, जिनका नाम था मोहनदास करमचंद गांधी। दुनिया ने उन्हें महात्मा कहा, लेकिन यह लोग नहीं जानते कि गांधी से महात्मा की यात्रा में रांची एक प्रमुख पड़ाव है।
गांधी के चरण झारखंड की धरती पर कई बार पड़े। एक लंबा कालखंड है। 1917 से 1940 के दरम्यान करीब पचास दिन उन्होंने झारखंड को दिया। कहते हैं, दो जून 1917 को पटना से चले और तीन को रांची पहुंचे और चार जून को पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत बिहार-ओडिशा के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर एडवर्ट गेट से आड्रे हाउस में उनकी मुलाकात हुई। गांधीजी की यह छोटी अवधि की यात्रा थी।
इस यात्रा में उनके बेटे और बा भी शामिल थीं। दो दिन तक बातचीत होती रही। इसके बाद बिहार चले गए। अगले महीने आठ जुलाई को लिखे गए दो पत्र रांची के पते से मिलते हैं। इसके बाद 23 सितंबर, 1917 का पत्र रांची से लिखा मिलता है, जिसे मगनलाल गांधी को लिखा गया था। वह फिर चंपारण समिति की बैठक के सिलसिले में रांची आए थे।
24 सितंबर को चंपारण समिति की बैठक रांची में ही हुई थी। यह बैठक काफी लंबी चली और आंदोलन को लेकर काफी विमर्श हुआ। 25 जुलाई 1917 को गांधी जी ने लीडर अखबार के संपादक के नाम पत्र रांची से ही लिखा। गांधीजी चंपारण आंदोलन के सिलसिले में फिर पूना से 18 सितंबर को चले और 22 को रांची पहुंचे। यहां करीब 24 से 28 तक चंपारण जांच समिति की बैठक में शामिल हुए।
इसके बाद पांच अक्टूबर को वे रांची से पटना चले गए। 25 सितंबर को ही जमनालाल बजाज को भी पत्र लिखा। इसके बाद मगन लाल गांधी को लिखे पत्र में जिक्र किया कि बुखार से मुक्त नहीं हुआ हूं। बुखार में भी वे चंपारण समिति की बैठक में भाग लेते रहे। एक पत्र 27 सितंबर को जीए नटेसन को लिखा और उसमें भी अंत में लिखा कि 'मेरे च्वर के कारण आप चिंतित न हों। वह अपने समय से ही जाएगा। वह अक्टूबर के पहले सप्ताह तक रांची में रहे।
रांची में गांधीजी के रहने के बारे में चार अक्टूबर 1917 तक का जिक्र मिलता है। चंपारण के इस आंदोलन में रांची भी जुड़ गया और यह एक प्रमुख केंद्र बन गया। गेट ने एक कमीशन बना दी और गांधीजी को इसका मेंबर बनाने के लिए राजी कर लिया। इसके बाद कमीशन का काम बेतिया से शुरू हुआ। एक तरह से चंपारण आंदोलन की नीति, रणनीति और जांच समिति का रांची में ही गठन किया गया। फिर इस आंदोलन की सफलता की कहानी सब जानते हैं।
गांधीजी यहां श्रद्धानंद रोड में रहते थे। पर, अब किसी को पता नहीं कि वह कौन सा मकान था। पटना के एक वकील जो गांधीजी के साथ थे, उनके कोई रिश्तेदार यहां रहते थे तो पहली बार वे उन्हीं के यहां ठहरे थे। इस दौरान एक उल्लेखनीय बात यह हुई कि उनकी मुलाकात टाना भगतों से हुई। गौरतलब है कि 1914 से टाना भगत धार्मिक पाखंड के साथ अंग्रेजों के लगान के खिलाफ अहिंसक आंदोलन चला रहे थे। गांधीजी ने आठ जुलाई 1917 को अपनी डायरी में इसका उल्लेख किया है।
लिखा है, आज मैंने टाना भगत नामक आदिवासी जमात के लोगों से बात की। ये अहिंसा और सदाचार को मानने वाले हैं।गांधी के यहां पहुंचने से पहले से यहां सबसे पहले टाना भगतों ने अङ्क्षहसक लड़ाई छेड़ दी थी। इसे लोग कम जानते हैं। टाना भगत फिर गांधी के पक्के भक्त बन गए और खादी को अपना लिया। ये आज भी खद्दर ही पहनते हैं। दुनिया में ये गांधी के सच्चे अनुयायी हैं। पर, इन्हें कौन याद करता है?
झारखंड में जब-जब गांधी की बात होगी, टाना भगतों की भी बात करनी होगी। गया कांग्रेस हो या रामगढ़ कांगे्रस, जब जगह पैदल ही हाजिर। एक बात कहना तो भूल रही थी। उसे याद करना जरूरी है। 1917 में ही मौलाना आजाद यहां नजरबंदी की सजा भोग रहे थे। वे चार साल तक यहां रहे। पर, कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता कि 1917 में उनकी मुलाकात बापू से हुई थी या नहीं?