माताएं हैरान, बच्चे परेशान, किस्मत को कोसते पहुंचे पिता Jamshedpur News
2175 किमी का 37 घंटे का सफर। जी हां सफर (परेशानी भरी यात्रा)। ट्रेन ने रफ्तार के साथ-साथ श्रमिकों की मुसीबतें बढ़ती गई।
जमशेदपुर (जागरण संवाददाता)। गुजरात के मोरबी शहर से फिर एक ट्रेन 1600 श्रमिकों को लेकर टाटानगर के लिए चली नाम श्रमिक स्पेशल।
ये सिर्फ नाम की ही स्पेशल है। इसमें असुविधाएं इतनी कि उन्हें देख निर्लज्ज भी शरमा जाए। जब दो माह की परेशानी जिल्लत व बेबसी का जीवन व्यतीत करने के बाद यात्री इस पर सवार हुए तो उनके मायूस व उदासी भरे चेहरे में कहीं न कहीं ये सुकून भी नजर आ रहा था कि चलो अब अपने गांव चलते हैं। अब वहां जो भी रूखी-सूखी मिलेगी उससे जीवन व्यतीत कर लेंगे। इसी उधेड़बुन के बीच तेज सीटी के आवाज के साथ ट्रेन ने मोरबी स्टेशन छोड़ा और शुरू हो गया इन प्रवासी मजदूरों का 2175 किमी का 37 घंटे का सफर। जी हां, सफर (परेशानी भरी यात्रा)। ट्रेन ने रफ्तार के साथ-साथ श्रमिकों की मुसीबतें बढ़ती गई।
जैसे-जैसे सूरज चढ़ता गया, धूप तेज होती गई और बाहर का नजारा देखने के लिए जिद कर खिड़की के बगल में बैठे बच्चों और महिलाओं की बेचैनी बढ़ने लगी। रही सही कसर कोच में लगे पंखे ने पूरी कर दी। अचानक पंखे की हवा बंद हुई और बच्चों का रोना शुरू हो गया। कुछ ही देर में कोच में बैठे सभी लोग पसीने से तरबतर हो चुके थे। यहां शुरू हुआ जुगाड़ तंत्र। कोई तौलिया भिगोकर तो कोई गीली चादर खिड़की पर डालकर गर्म हवा को ठंडी करने में जुट गया, लेकिन कबतक कुछ ही देर में तेज व गर्म हवा से ये सूखने लगे। ऐसे में परेशान हो दो बच्चों के पिता ने आंखें तरेरी तो चाईबासा निवासी मौसमी अपनी दोनों बेटियों को खिड़की के बाहर खेतों में गाय-बकरी दिखाकर उनका मन बहलाकर चुप करने में लग गई।
माताएं बच्चों को अपने भीगे आंचल से चेहरा व हाथ पांव पोंछकर गर्मी से राहत देने का असफल प्रयास करतीं नजर आई। वहीं कुछ श्रमिक अपनी किस्मत के साथ व्यवस्था को कोसते हुए पंखा चलाने की जुगत में लग गए। अचानक कोच में आहा आवाज आई तो पता चला पंखा चलने लगा, लेकिन इससे इन श्रमिकों की मुसीबत में कोई कमी नहीं आई। बार-बार उपयोग होने व पानी की कमी के कारण अब शौचालय से दुर्गध आनी शुरू हो चुकी थी। किसी तरह इसका आदी बन लगभग 42 डिग्री तापमान में बार-बार पानी पीने के कारण जो पानी लेकर चले थे व स्टेशन पर जो उपलब्ध कराया गया था वो अब लगभग खत्म हो चुका था।
जो बचा भी वह इतना गर्म कि हलक से नीचे उतारते न बने, लेकिन मासूम बचपन को माता-पिता की इन परेशानियों से क्या लेना, एक बार फिर बच्चों के रोने की आवाजें शुरू हो गईं। तभी एक स्टेशन आया। लोग बोतल लेकर गेट की ओर भागे। यहां ट्रेन रुकी तो, लेकिन हर गेट बाहर से बंद होने के कारण कोई यात्री पानी के लिए नीचे नहीं उतर पाया। क्योंकि उनकी स्थिति कैदी वैन जैसी ही थी। जिससे उतरने की इजाजत किसी को नहीं थी। हताश-निराश श्रमिक अपनी-अपनी सीटों पर आकर उदासी भरी नजरों से अपने परिवार को बिलखते देखते रहे। यूं तो ट्रैक पूरा खाली था और इस पर 130 किलो मीटर प्रति घंटा की रफ्तार से ट्रेन चलने का दावा भी रेलवे करती है। लेकिन श्रमिक स्पेश तपती दोपहर में 50-60 किलो मीटर की रफ्तार से रेंगती रही। इधर, परेशानियों से दो-चार होते श्रमिकों को अब भूख भी सताने लगी। वहीं माताओं ने पहले छोटे बच्चों का पेट भरना उचित समझा, लेकिन नियति ने यहां कुछ और ही सोच रखा था। मानो तयकर दिया हो कि इन गरीबों को चैन से सफर नहीं करने देगी। जैसे ही बोतलों व थर्मस से दूध निकाला तो वो स्तब्ध रह गई, क्योंकि इस झुलसा देने वाली गर्मी में दूध फट चुका था। वहीं थर्मस व बोतल देख बच्चों की भूख और बढ़ चली थी। अब उन्हें समझाना आसान न था। इसी बेबसी में चाईबासा निवासी अनीता ने अपनी डेढ़ वर्ष की बच्चों को फटे दूध का पानी ही बोतल में भरकर दिया। जिसे बहला-फुसला कर पिला दिया। वहीं लू के थपेड़े खिड़कियां बंद होने के बाद भी चैन से नहीं बैठने दे रहे थे। इसी बीच एकबार फिर पंखा दगा दे गया। खैर उसका इलाज समझ चुके कुछ युवकों ने उसे जोर की चपत लगाई जिससे वह पुन: शुरू हो गया। इसके बाद तय हुआ कि भोजन किया जाए, लेकिन जैसे ही पैकेट खोले गए सब्जी से उठने वाले बदबू ने सभी को बेचैन कर दिया। कुछ ने भोजन का त्याग किया तो कुछ ने किसी तरह उसी से काम चलाया तो कुछ ने सूखी पूड़ी ही खाई। इन परेशानियों से जूझते दो घंटे बीते।
इतने सफर में पहली बार एक ऐसे स्टेशन पर ट्रेन रुकी जहां यात्रियों को भोजन के पैकेट व पानी उपलब्ध कराया गया। लंबी परेशानियों से जूझते बच्चों व महिलाओं को भूख से बिलखते देखने वाले ये श्रमिक भोजन के पैकेट व पानी की बोतलों पर टूट पड़े। यहां तक कि एक-दूसरे को धकियाने में भी कोई संकोच न था। कुछ को भोजन मिला कुछ को नहीं। खैर जिसे मिला वह अपने को मुकद्दर का सिकंदर समझ परिवार के साथ पेट भरने में जुट गया। रात हुई सोते-जागते करवटें लेते रात व्यतीत हुई। सुबह होते ही फिर परेशानी ने स्वागत किया। अब कुल्ला मंजन करने के करण बेसिन जाम हो चुका था। उसका पानी भी ट्रेन के झटके के साथ छलक कर बाहर आने लगा। आसपास बैठने वालों की मुश्किलें बढ़ गई।
इन्हीं समस्याओं से जूझते हुए आखिर 2175 किलोमीटर का सफर तय कर करीब 37 घटे में ट्रेन डाई घटे विलंब से बुधवार की सुबह 9.30 बजे टाटानगर स्टेशन पहुंची। टाटानगर पहुंचे ही श्रमिकों ने राहत भरी लंबी सांस ली। साथ ही आंखों ही आंखों में एक-दूसरे को बधाई देते प्रतीत हुए। एआरएम विकास कुमार के नेतृत्व में सभी रेल अधिकारियों ने श्रमिकों को बारी -बारी से प्लेटफार्म से बाहर निकाला। जबकि चक्रधरपुर मंडल की सीनियर डीसीएम मनीष कुमार पाठक श्रमिकों के टाटानगर आने पर भोजन के पाकेट व पानी की बोतल सहित राशन के पैकेट दिए जाने को लेकर फोन पर ही रेल अधिकारियों को निर्देश देते रहे। बाहर खड़ी बसों तक सिविल डिफेंस के सदस्य श्रमिकों को पहुंचा रहे थे।
चाईबासा निवासी अनिता देवी अपनी एक वर्ष की बेटी को गोद में एक एक तीन वर्ष की बेटी को पैदल ही लिए प्लेटफार्म में उतरी। तीनों के चेहरे लाल थे। छोटी बच्ची मीना व बड़ी बच्ची पानी के लिए रो रही थी। तभी रेलकर्मी ने उसे पानी दिया। खड़े खड़े एक बोतल पानी तीनों गटक गए। थोड़ी राहत महसूस करने के बाद वे तीनों स्टेशन से बाहर निकले। यहां के यात्री सवार थे ट्रेन में : गुजरात के मोरबी शहर से बुधवार को आई श्रमिक स्पेशल ट्रेन में 1600 श्रमिक टाटानगर स्टेशन पहुंचे। इनमें पूर्वी ¨सहभूम, पश्चिमी ¨सहभूम, बोकारो, धनबाद, साहेबगंज, रांची, रामगढ़, पलामू, सरायकेला-खरसांवा, हजारीबाग, लातेहार आदि के श्रमिक शामिल थे।