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झारखंड में खात्मे की कगार पर बालू का भंडार, ये है खास वजह Jamshedpur News

नदियों के माध्यम से प्राकृतिक रूप से बालू तैयार होता है। नदियों में पानी और प्रवाह घटने से जरूरी अपर्जन क्रिया नहीं हो पा रही है। यही वजह है क‍ि बालू का भंडार खात्‍मे की ओर है।

By Rakesh RanjanEdited By: Published: Thu, 09 Jan 2020 09:55 AM (IST)Updated: Thu, 09 Jan 2020 09:55 AM (IST)
झारखंड में खात्मे की कगार पर बालू का भंडार, ये है खास वजह Jamshedpur News
झारखंड में खात्मे की कगार पर बालू का भंडार, ये है खास वजह Jamshedpur News

जमशेदपुर, विश्वजीत भट्ट। जब तक नदी हैैं तबतक बालू के भंडार हैैं, उनपर टिका कारोबार है और बालू के दम पर बनने वाली अट्टालिकाएं हैैं, लेकिन अगर नदियां ही बालू उगलना बंद कर दें तो न सिर्फ यह पूरा क्रम बिगड़ जाएगा, बल्कि एक बड़ा संकट भी खड़ा हो जाएगा। झारखंड की नदियों में बालू बनने की क्रिया जिस तरह ठप पड़ी है उसे देखकर यह खतरा नजदीक आता दिख रहा है। 

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विशेषज्ञ बताते हैं कि बालू पानी, हवा और ग्लेशियर के द्वारा की जाने वाली अपर्जन क्रिया से बनता है। झारखंड की स्वर्णरेखा, खरकई, दामोदर और कोयल में पानी इतना कम है कि अपर्जन क्रिया हो ही नहीं रही है। लिहाजा, लंबे समय से इन नदियों में बालू बन ही नहीं रहा है। उधर बालू का का उपयोग और व्यापार बढऩे से नदियों में बालू के लिए बेतहाशा खनन हो रहा है। ऐसे में प्रचंड प्रवाह और लंबी यात्रा के क्रम में अपने साथ बहाकर और बनाकर नदियों द्व्रारा खड़ी किया गया बालू का अथाह भंडार खत्म होते ही आने वाली पीढिय़ां बालू को तरस जाएंगीं।  

हजारों-लाखों साल में बना बालू चंद वर्षों में हो गया खत्म

जानकार बताते हैं कि बालू दिन, महीने या कुछ साल में नहीं बनता। पिछले 100 वर्षों में हमने जो बालू इस्तेमाल किया है, उसे बनने में हजारो-लाखों साल लगे थे। दूसरी ओर, कंक्रीट के जंगल खड़ा करने में हमने बालू की बेतहाशा खपत की। रफ्तार यही रही तो दो से तीन साल में झारखंड की तमाम नदियों का बालू खत्म होने की कगार पर पहुंच जाएगा। इसलिए सरकार समेत तमाम नदी-पर्यावरण और भू-विज्ञान विशेषज्ञों के साथ साथ आम लोगों को भी इसपर ध्यान होना होगा। साथ ही बालू के विकल्प भी तलाशने होंगे। 

ऐसे बनता है बालू 

झारखंड में न तो ग्लेशियर है और न ही रेगिस्तान। लिहाजा यहां नदियां ही बालू बनाती हैं। नदियों में पानी के साथ बड़े-बड़े पत्थर चलते हैं। अपर्जन क्रिया के दौरान पत्थर पानी में आपस में टकराते हैं और बालू के रूप में नदी की सतह पर बैठ जाते हैं। नदियों में जब बाढ़ आती है तो तटों पर बालू का भंडार छोड़कर पानी लौट जाता है। दुर्भाग्य से झारखंड में लंबे समय से ऐसा नहीं हो पाया है। 

 पूर्वी सिंहभूम से समझें बालू की खपत का गणित 

झारखंड के केवल एक जिले पूर्वी सिंहभूम से ही राज्य में बालू की खपत का गणित समझा जा सकता है। इस जिले में ही हर महीने एक लाख घन मीटर बालू की खपत है। इस समय स्वर्णरेखा व खरकई नदी के मात्र दो घाटों गुड़ाबांधा प्रखंड के कनियालुका और मुसाबनी प्रखंड के सोनागड़ा से हर महीने 16,500 घन मीटर बालू ही निकल पा रहा है। आज से लगभग 15 वर्ष पहले तक दोनों नदियों के 55 घाटों से बालू का उठाव होता था। यह जिला बालू की अपनी बाकी की जरूरत दूसरे राज्यों से मंगाकर पूरी कर रहा है। 

 आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु ने निकाला बेहतर विकल्प 

जानकार बताते हैं कि केवल झारखंड ही नहीं, बल्कि देश भर में बालू की किल्लत है। आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु ने इसका बेहतर विकल्प निकाला है। पत्थर को पीसने पर जो डस्ट निकलता है, उसका बालू की जगह पर इस्तेमाल ये दोनों राज्य कर रहे हैं। झारखंड में भी पत्थरों की कमी नहीं है। इसलिए झारखंड भी इस विकल्प को आजमा सकता है। 

ये कहते विशेषज्ञ

  • नदियों में नाम-मात्र का पानी होने के कारण अपर्जन क्रिया हो ही नहीं पा रही है। इसलिए झारखंड की चारों प्रमुख नदियां बालू बना ही नहीं पा रही हैं, जबकि बालू की खपत बेतहाशा है। चिंता की बात यह है कि सूबे में बालू का भंडार महज कुछ साल में ही खत्म हो जाएगा।  

-प्रो. मो. रियाज, भूगर्भ शास्त्री, करीम सिटी कॉलेज 

  • नदियों से निकल रहा बालू और खपत का आंकड़ा साफ-साफ बता रहा है कि झारखंड में बालू का स्टॉक कुछ ही साल में खत्म हो जाएगा। करोड़ों वर्षों में बना बालू हमने 100 वर्षों में खर्च कर दिया है। अब बालू की जगह पर पत्थर के डस्ट के इस्तेमाल के विकल्प पर ध्यान देना होगा। 

-विकास सिंह, अध्यक्ष, जमशेदपुर शाखा, कन्फेडरेशन ऑफ रियल एस्टेट डेवलपर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (क्रेडाई)


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