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Sports: फुटबॉल के पुरोधा पीके बनर्जी का जमशेदपुर से था गहरा लगाव, जानिए

भारतीय फुटबॉल के पुरोधा पीके बनर्जी का झारखंड के जमशेदपुर से गहरा लगाव था क्योंकि उनका बचपन लौहनगरी में ही बीता था। आइए जानिए उनसे जुड़ी रोचक कहानी।

By Edited By: Published: Sat, 21 Mar 2020 08:59 AM (IST)Updated: Sat, 21 Mar 2020 09:57 AM (IST)
Sports: फुटबॉल के पुरोधा पीके बनर्जी का जमशेदपुर से था गहरा लगाव, जानिए

जमशेदपुर,जितेंद्र सिंह।  Football pioneer PK Banerjee had a strong attachment to Jamshedpur Jamshedpur पीके बनर्जी का जमशेदपुर से गहरा लगाव था, क्योंकि उनका बचपन लौहनगरी में ही बीता था। वह भारतीय फुटबॉल टीम के पुरोधा थे। शुक्रवार को कोलकाता में पीके बनर्जी का निधन हो गया।

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बिष्टुपुर स्थित केएमपीएम स्कूल से स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद पटना विवि में कॉलेज की पढ़ाई पूरी की। कोलकाता के ईस्टर्न रेलवे में काम के दौरान पीके बनर्जी का बॉस से नहीं बनती थी। उन्होंने वहां से वोलंटियरी रिटायरमेट ले लिया। कुछ दिन बाद ही टाटा स्टील के तत्कालीन प्रबंध निदेशक ने टाटा फुटबॉल अकादमी का तकनीकी निदेशक बनने का ऑफर दिया। जमशेदपुर से गहरा लगाव होने के कारण ही उन्होंने इस ऑफर को स्वीकार कर लिया। उस समय टाटा फुटबॉल अकादमी का एक ही नारा था, 'कैच देम यंग'। यह पीके बनर्जी का समर्पण भावना का ही परिणाम है कि 1992 से लेकर 1997 तक कुल 29 कैडेट ने भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया, जिसमें 17 खिलाड़ी 1992 बैच के 12 खिलाड़ी 1996 बैच के थे।

रूसी मोदी करते थे खास पसंद

रूसी मोदी पीके बनर्जी को काफी पसंद करते थे। कारण वह जमशेदपुर में लड़का था। उन्होंने टाटा फुटबॉल अकादमी पहुंचते ही कैडेटों को उत्साहित करना शुरू किया। उन्होंने अपने खिलाड़ियों के साथ अपने संघर्ष की गाथा साझा किया। उस समय गरीब बच्चे ही फुटबॉल को कॅरियर बनाते थे। टाटा फुटबॉल अकादमी को पेशेवर बनाकर पीके बनर्जी ने इस मिथक को तोड़ा। अकादमी में बच्चों को स्कूली शिक्षा की व्यवस्था की गई। उन्होंने अकादमी में यूरोपियन फुटबॉल शैली शुरू की। भारतीय फुटबॉल टीम का प्रतिनिधित्व कर चुके रेनेडी सिंह, कार्लटन चैपमैन, बासुदेव दास, तौसिफ जमाल आलोक दास जैसे खिलाड़ी पीके बनर्जी की ही देन है।

टाटानगर रेलवे क्वार्टर में तंबू लगाकर रहते थे पीके बनर्जी

पीके बनर्जी के चाचा टाटानगर में स्टेशन मास्टर थे। एक दिन आसनसोल स्टेशन से ट्रंक कॉल कर चाचा ने पीके बनर्जी को जमशेदपुर आने को कहा। सुदूर ग्रामीण इलाके में रहने वाले पीके बनर्जी, जिन्हें ¨हदी बोलना तक नहीं आता था, जमशेदपुर पहुंचे। वह टाटानगर के रेलवे क्वार्टर में रहा करते थे। पैसे की कमी होती थी। चाचा का क्वार्टर छोटा था। चाचा के क्वार्टर में ही टेट लगाकर रहा करते थे। बाद में बिष्टुपुर स्थित केएमपीएम स्कूल में नामांकन कराया गया। शुरुआत में उन्होंने बैडमिंटन, क्रिकेट, वॉलीबॉल व हॉकी में हाथ आजमाया। लेकिन किस्मत में फुटबॉलर बनना लिखा था। पिता ने उन्हें जमशेदपुर स्पो‌र्ट्स क्लब में एडमिशन करा दिया। यहां से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह मैदान पर उतरते तो दर्शक झूम उठते थे। मैच खेलने के लिए वह बस की छत पर चढ़कर सफर किया करते थे।

पटना विवि प्रदीप्तो को बना दिया प्रदीप कुमार

पटना यूनिवर्सिटी से उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की। क्लर्क की गलती के कारण वहां उनका नाम प्रदीप्तो से प्रदीप कुमार कर दिया गया। यहीं से नई पहचान मिली।

15 साल की उम्र में ही केबुल कंपनी में लग गई नौकरी

घर में पैसे का अभाव था। 15 साल की उम्र में ही उनपर पैसे कमाने का दबाव था। मैट्रिक करने के बाद इंडियन केबुल कंपनी (केबुल कंपनी) में जूनियर क्लर्क का काम मिल गया। वहां छह महीने काम करने के बाद 89 रुपये मिला। लेकिन तुरंत ही कंपनी के फुटबॉल टीम में शामिल कर लिया गया, जिसके कारण उन्हें अभ्यास करने के लिए स्पेशल लीव मिलना शुरू हो गया।

जब मां ने पीके को थमाई मैन ऑफ द मैच ट्रॉफी

इंडियन केबुल कंपनी व टेल्को के बीच प्रदर्शन मैच कभी नहीं भूलते थे पीके बनर्जी। इस मैच में इंडियन केबुल कंपनी ने टेल्को को 2-0 से मात दी थी। पहले ही मिनट से पीके विरोधी टीम पर भारी पड़ रहे थे। आयोजक ने पीके की मां से मैन ऑफ द मैच की ट्रॉफी दिलवाई। पीके को दो शब्द कहने के लिए बुलाया गया। मां वीणा देवी ने सभी को धन्यवाद कहा। उन्होंने गेम की महत्ता के बारे में लोगों को बताया।

संतोष ट्रॉफी में बिहार का किया था प्रतिनिधित्व

1936 में जलपाईगुड़ी में जन्मे पीके बनर्जी छोटी उम्र में ही अपने माता-पिता के साथ जमशेदपुर आ गए थे। जमशेदपुर स्पोर्टिग एसोसिएशन में टाटा स्टील का प्रतिनिधित्व किया करते थे। 1951 में 15 साल की उम्र में उन्होंने संतोष ट्रॉफी में बिहार का प्रतिनिधित्व किया। जमशेदपुर में स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद वह 1954 में कोलकाता के आर्यन स्पोर्टिग क्लब की ओर से खेलना खेलना शुरू किया। जल्द ही उन्हें मोहन बागान क्लब में शामिल कर लिया गया। वह 1970 से लेकर 1986 तक भारतीय फुटबॉल टीम का प्रतिनिधित्व किया। बाद में ईस्ट बागान व मोहन बागान के प्रशिक्षक भी बने। 1990 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया।

फुटबॉल के लिए छोड़ दी नौकरी

एक दिन पीके को पटना विवि से पत्र आया कि उनका चयन बिहार टीम में हो गया है। इस चयन ने पीके की जिंदगी बदल दी। लेकिन 15 साल के पीके को केबुल कंपनी ने रिलीज करने से मना कर दिया। पिता ने तुरंत ही कंपनी से इस्तीफा देने को कहा। पीके अपने पिता के साथ टाटानगर स्टेशन पहुंचे और दस रुपये देकर पटना भेजा। पटना में बीएन कॉलेज के प्राचार्य मैनुल हक से मुलाकात हुई। पटना सेक्रेटियट ग्राउंड में ट्रेनिंग हुई और टीम ने संतोष ट्रॉफी में जीत हासिल की।


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