Pravasi LIVE : हौसले से हार गए पैरों के छाले, फिर भी नहीं रुक रहे कदम Jamshedpur News
जब तक पैसे थे जिंदगी कटी लेकिन भूख के आगे किसी का वश नहीं चलता। सामान बांधा और साहस कर पैदल ही सैकड़ों मील दूर अपने गांव निकल पड़े। पैरों में सूजन आ गई छाले पड़ गए।
जमशेदपुर (जागरण संवाददाता)। Pravasi LIVE News दोपहर का समय। टाटा-रांची राष्ट्रीय राजमार्ग पर पैदल घर लौटते मजदूरों का जत्था। सूर्य की सीधी धूप रास्ते में अंगार उगल रही है। इनके हौसले के आगे पैरों के छाले बौना साबित हो रहे हैं। आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से झारखंड पहुंच गए हैं तो लग रहा है जैसे कि अपने घर आ गए। अब दुमका तक जाना है जो अब 260 किलोमीटर दूर है। लेकिन यह दूरी अब दूर नहीं महसूस हो रही है।
लॉकडाउन में काम बंद हुआ तो प्रवासी श्रमिकों ने जो जमा पूंजी इकट़ठा की थी वह ज्यादा दिन तक नहीं चली। कुछ दिन तक तो परिचितों ने मदद की, लेकिन फिर हाथ खड़े कर दिए। मकान मालिक किराया मांगने लगा तो अपने गांव लौटने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा। इस मुसीबत की घड़ी में कंपनी मालिक ने भी साथ छोड़ दिया।
जब तक पैसे थे, जिंदगी कटी लेकिन भूख के आगे किसी का वश नहीं चलता। फिर सामान बांधा और साहस कर पैदल ही सैकड़ों मील दूर अपने गांव के निकल पड़े। गर्मी की वजह से रात भर चलते थे। पैरों में सूजन आ गई, छाले पड़ गए। ऐसे ही कई जत्थे रांची को टाटा से जोडऩे वाली राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 33 पर देखने को लि रहे हैं। शहरों का आबाद करने वाले ये मजदूर आज अपने ही देश में प्रवासी कहे जा रहे हैं।
आंध्र प्रदेश से पैदल चलकर पहुंच गए डिमना
आंध्र प्रदेश के गुंटुर में एम्स बन रहा है। लॉकडाउन के बाद से ठेकेदार ने फूटी कौड़ी नहीं दी। 18 मजदूरों के इस जत्थे की जमा-पूंजी जब खत्म हो गई तो घर की याद सताने लगी। गुंटूर से दुमका की दूरी करीब 1470 किलोमीटर है। इनके हौसले को सलाम कि पैदल ही नापने को सोच डाली।
मजदूरों के इस जत्थे में कइयों के पैरों में छाले पड़ चुके हैं। उन्हीं में से एक हैं गोपाल हांसदा। दर्द से बेहाल गोपाल को उसके दोस्त सहारा दे रहे हैं। छाले और हौसले के बीच जंग जारी है। हिम्मत नहीं हार रहे। एक ही रट। बाबू मुझे घर पहुंचना है। डिमना चौक पर तैनात पुलिस वालों को हाथ जोड़ मिन्नतें कर रहा है, साहब किसी तरह कोई भी व्यवस्था करवा दीजिए।
जत्थे में शामिल मानेश्वर मुर्मू कहते हैं, साहब, ठेकेदार ने मेहनताना नहीं दिया। शुरु में तो ठीक रहा। दो महीने हो गए लॉकडाउन को तो बचत की राशि खत्म हो गई। भूख की आग के आगे किसका वश चलता है बाबू। विकट परिस्थिति में घर ही याद आती है। बस पैदल चल दिया। 14 मई को हम सब निकले थे। रास्ते में एक ट्रक वाले ने पांच-पांच सौ रुपये लिए सभी को बैठाया और विशाखापत्तनम के पास उतार दिया।
सड़क के किनारे बसे लोगों ने कई जगह खाना भी दिया। उनका हमसब हमेशा ऋणी रहूंगा। मानेश्वर के साथ चल रहे मरांडी ने बताया कि मेहनताना नहीं मिला तो गुंटूर में रुकने का हौसला भी टूट गया। घर की याद सताने लगी, क्या करता। कुछ साधन नहीं सूझ नहीं रहा था तो पैदल ही निकल चले।
गेरुआ बालू उठाने गए थे आंध्रप्रदेश, पैदल लौटना पड़ा।
डिमना-पारडीह के बीच डिमना बस्ती के सामने एनएच किनारे निर्माणाधीन मकान में कुछ मजदूर आराम करते मिले। उनमें से कई फर्श पर ही बेसुध सोए थे तो कई फोन लगाकर अपने घर बात कर रहे थे- हम टाटा पहुंच गए हैं। चिंता मत करना। ये सभी आंध्रप्रदेश से आ रहे हैं।
सभी मजदूरों के पेट व पीठ एक हो चुके हैं। पूछने पर पता चला कि साहेबगंज जाना है। आंध्रप्रदेश से साहेबगंज की दूरी करीब 1761 किलोमीटर है। यह 12 मजदूर का जत्था है। 13 मई को औरंगाबाद से निकला था। पसीने से तरबतर चंदन एक कोने में बैठा शून्य को निहार रहा था। थक के चूर होने के कारण चेहरा भावशून्य। पूछने पर आंखों से आंसू निकल पड़े। बताने लगा- 13 मई को औरंगाबाद से पैदल ही निकले थे। बीच में कुछ ट्रक वालों ने लिफ्ट दिया तो कई जगह लोगों ने खाना भी खिलाया। हम गोदावरी नदी से गेरुआ बालू उठाने का काम करते थे। जब जमा-पूंजी खत्म हुई तो घर पहुंचने के अलावा कोई चारा नहीं था।
बेंगलूर से पैदल चल पड़े नदिया, अब तक तय कर चुके 1795 किमी
चायना बीबी और उनके परिवार के 20 सदस्य विगत 10 मई को बेंगलुरू से निकले थे। बेंगलुरु से नदिया की दूरी लगभग 2025 किलोमीटर है। अब भी उन्हें 230 किलोमीटर तय करना है। घर नजदीक सोच हौसला बढ़ा हुआ है। चायना बीबी के साथ बच्चे भी है।
बच्चा इतना छोटा है कि अधिक दूर तक पैदल चल पा रहा है और ना ही उसे गोद में उठाकर ले जाया जा सकता है। पश्चिम बंगाल के नदिया के कृष्णानगर जाना है। 20 लोगों की इस टोली में महिला चायना बीबी और एक आठ साल का बच्चा राजेश भी है। सभी बंगलूर में पाइपलाइन का काम करते थे। साथ चल रहे तैबूल ने बताया लॉकडाउन के कारण काम ही बंद हो गया।
कर्नाटक सरकार मजदूरों को आने नहीं दे रही थी। मरता क्या ना करता, सभी पैदल ही चल दिए। ठेकेदार ने एक माह का वेतन नहीं दिया और ना खाने-पीने की सुविधा ही दी। लॉकडाउन के दौरान भोजन का इंतजाम जैसे-तैसे होता रहा। रास्ते में बहुत मदद मिली।