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नेताजी ही नहीं, उनकी कुर्सी-टेबल को भी पूजता है कालिकापुर

विश्वजीत भट्ट, जमशेदपुर : पूर्वी सिंहभूम जिला मुख्यालय (जमशेदपुर) से 30 किमी और पोटका प्रखं

By JagranEdited By: Published: Wed, 15 Aug 2018 02:00 AM (IST)Updated: Wed, 15 Aug 2018 02:00 AM (IST)
नेताजी ही नहीं, उनकी कुर्सी-टेबल को भी पूजता है कालिकापुर
नेताजी ही नहीं, उनकी कुर्सी-टेबल को भी पूजता है कालिकापुर

विश्वजीत भट्ट, जमशेदपुर :

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पूर्वी सिंहभूम जिला मुख्यालय (जमशेदपुर) से 30 किमी और पोटका प्रखंड मुख्यालय से 10 किमी दूर बसा कालिकापुर गांव। देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत इस गांव की गलियां फूले नहीं समा रही हैं। क्यों, क्योंकि यहां नेताजी सुभाष चंद्र बोस आए थे। और, दो घंटे तक धाराप्रवाह बांग्ला भाषा में गांव के लोगों में देश पर मर मिटने के लिए जोश भरा था। 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' का नारा बुलंद किया था। यह गांव आज भी उस कुर्सी-टेबल की पूजा करता है, जनसभा में जिस पर नेताजी बैठे थे। नेताजी की यादों को ताजा रखने के लिए उस स्थान पर नेताजी चबूतरा बनवा दिया है, जहां पर नेताजी ने जनसभा की थी।

दरअसल, 1857 के सिपाही विद्रोह के समय इस गांव में थाना की स्थापना हुई। उस समय बंगाल (अब झारखंड) के कालीमाटी गांव, साकची गांव, बिष्टुपुर गांव, सोनारी गांव, जुगसलाई गांव और भिलाई पहाड़ी गांव तक इस थाने का इलाका था। इस थाने में तैनात अंग्रेज दारोगा और सिपाहियों ने स्वाधीनता आंदोलन को कुचलने के लिए जुल्म-ओ-सितम की इंतेहा कर दी। 1934 में मई के महीने में दिनदहाड़े कालिकापुर के कुम्हारों और आस-पास के लगभग 400-500 ग्रामीणों ने थाने पर हमला बोल दिया। सिपाहियों की बंदूकें छीन लीं। दारोगा को पीटने लगे। भागकर दारोगा एक घर में छिप गया। घर से निकाल कर दारोगा को खूब मारा। बांध कर तत्कालीन जिला मुख्यालय चाईबासा एसपी के कैंप कार्यालय जमशेदपुर ले जाने लगे। लेकिन, किसी तरह दारोगा छूट गया।

ईशान चंद्र, हरिचरण व कमल चंद्र भकत ने किया नेतृत्व

थाने पर हमले का नेतृत्व प्रधान राखाल चंद्र भकत के तीन पुत्रों ईशान चंद्र, हरिचरण व कमल चंद्र भकत ने किया। चूंकि हरिचरण पहलवान थे, इसलिए सबसे पहले उन्होंने अंग्रेज दारोगा का उठाकर पटक किया। थाने में तोड़-फोड़ कर दिया और आगजनी कर दी।

60 लोगों के खिलाफ दर्ज हुआ था मुकदमा

अंग्रेज सरकार ने इस विद्रोह में कुल 60 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया। सभी लोग पकड़-पकड़ कर जेलों में डाल दिए गए। कोई छह, कोई चार तो कोई तीन महीने जेल में रहा। इन आंदोलकारियों का मुकदमा लड़ने के लिए तब कोलकाता के मशहूर बैरिस्टर विरेंद्र सास्मल आगे आए। कुल तीन साल तक मुकदमा चला और अंतत: सभी आंदोलनकारी बरी हो गए।

पांच सितंबर 1939 को गांव पहुंचे नेताजी

कालिकापुर के कुम्हारों और आस-पास के ग्रामीणों के इस विद्रोह की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। यही चर्चा नेताजी सुभाष चंद्र बोस तक पहुंची और आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ाने के लिए वे पांच दिसंबर 1939 को कालिकापुर पहुंचे। जमशेदपुर पहुंचने पर गोवा से आए टाटा स्टील के बहुत बड़े ठेकेदार जॉन पी डिकोस्टा ने नेताजी को कालिकापुर जाने के लिए अपनी फोर्ड कार उपलब्ध कराई। पूरे रास्ते भर नेताजी का जोरदार स्वागत हुआ। तमाम गांवों के महिला-पुरुष सुबह से तैयार होकर हाथों में फूल-माला लेकर सड़क के किनारे खड़े थे। सभा स्थल तक पहुंचते-पहुंचते नेताजी की गाड़ी फूलों से ढक गई। सभा स्थल शंख ध्वनि और ऊल ध्वनि (मुंह और दोनों हथेलियों को गोल कर निकाली जाने वाली आवाज) से सभा स्थल देर तक गूंजता रहा। कालिकापुर के बाद नेताजी घाटशिला, चाकुलिया और बहरागोड़ा में जनसभा को संबोधित कर कोलकाता चले गए।

पीढि़यों से हो रही कुर्सी-टेबल की पूजा

सभा स्थल पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जिस कुर्सी-टेबल का इस्तेमाल किया था, वो न केवल बहुत संभाल कर रखी गई हैं, बल्कि उसकी पूजा तीन पीढियों से हो रही है। पहले विद्रोह के नेतृत्वकर्ता ईशान चंद्र भकत ने की। फिर उनके पुत्र डॉ. रमेश चंद्र भकत और अब उनके पौत्र डॉ. विकास चंद्र भकत कर रहे हैं। गांव वालों के साथ ही दूर-दूर से लोग यह कुर्सी-टेबल देखने आते हैं।

अफसोस, इतिहास में स्थान न पा सका विद्रोह

ऐसे समय में जब आम लोग अंग्रेजों के खौफ से थर-थर कांपते थे, तब गांव के लोगों ने थाने पर हमला और अंग्रेज दारोगा को पीटने का साहस दिखाया। 400-500 ग्रामीणों ने थाने पर हमला बोल सिपाहियों की बंदूकें छीन लीं। लेकिन, अफसोस कि ग्रामीणों का इतना बड़ा विद्रोह इतिहास में स्थान नहीं पा सका।


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