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इस पर्व पर गांव से भगाया जाता दुष्ट आत्माओं को, जानिए

मागेया के दिन गांव से दुष्ट आत्माओं को भगाया जाता है। समाज के युवा हाथों में डंडा लिए गांवों में घूमते हैं। हर घर से चावल एकत्र कर गांव के बाहर पकाकर खाते हैं।

By Rakesh RanjanEdited By: Published: Sun, 20 Jan 2019 05:07 PM (IST)Updated: Sun, 20 Jan 2019 05:07 PM (IST)
इस पर्व पर गांव से भगाया जाता दुष्ट आत्माओं को, जानिए
इस पर्व पर गांव से भगाया जाता दुष्ट आत्माओं को, जानिए

जमशेदपुर [अवनीश कुमार]। यह पर्व अनोखा है। इसके समापन के दिन गांव से दुष्ट आत्माओं को भगाया जाता है। जी हां, आदिवासी हो समुदाय के नए साल का पहला और बड़ा त्योहार है- मागे परब। यह माघ महीने में फसल कटने व खलिहान से अनाज घर में लाने के बाद मनाया जाता है। इस पर्व को लोग अपनी सुविधानुसार अलग-अलग जगहों पर खुद दिन व तारीख तय कर मनाते हैं, ताकि एक दूसरे द्वारा आयोजित परब में उत्साहपूर्वक शामिल हो सकें। यही कारण है कि माघ महीने में झारखंड के गांव इस पर्व के उमंग में डूबे नजर आते हैं।

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दिउरी (पुजारी) राजा बिरुआ बताते हैं कि मागे दो शब्दों मा और गे से मिलकर बना है। मा का अर्थ 'मां' और गे का अर्थ 'तुम ही हो' होता है। इस तरह यह मां को समर्पित होता है। इसमें धरती मां और गाय दोनों की पूजा होती है। कई जगह मागे परब के अंतिम दिन को मागेया के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन गांव से दुष्ट आत्माओं को भगाया जाता है। समाज के युवा हाथों में डंडा लिए गांवों में घूमते हैं। हर घर से चावल एकत्र कर गांव के बाहर पकाकर खाते हैं।

सामूहिक रूप से छह दिनों तक मनाया जाता है त्योहार

सामूहिक रूप से मनाया जाने वाला मागे परब छह दिनों का होता है। हरेक दिन को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। पहले दिन को अनादेर, दूसरे दिन को गउमारा, तीसरे दिन को ओतेइली, चौथे दिन को हेरू सकम, पांचवे दिन को गुरिरूई या लोयो, छठे दिन को मागे परब के नाम से जाता है। कई जगह सातवें दिन बासी परब भी मनाया जाता है। इसे जातरा कहा जाता है। छठे दिन जाहेरथान में मुख्य पूजा होती है। दो मुर्गों की बली दी जाती है। इसे लोग प्रसाद स्वरूप बांटकर खाते हैं। महिलाओं को नहीं दिया जाता है। छठे दिन ही लोग पारंपरिक परिधान पहनकर नाचते और गाते हैं।

किस दिन क्या होता है

- अनादेर : मागे परब के पहले दिन गांव के सभी पुरुष एकजुट होकर देशाउली में सिबोंगा की उपासना करते हैं।

- गउमारा : दूसरे दिन गाय की पूजा करते हैं। दीमक के बनाए मिट्टी के टिल्हे को दिऊरी के आंगन में लाकर जामुन के पत्ते से पूजते हैं। युवा पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाते हुए टिल्हे के चारों तरफ घूमते हैं।

- ओतेइली : तीसरे दिन घर की सफाई के बाद दिउरी के घर जाते हैं। दिउरी और उनकी पत्नी को एक जगह बैठा कर पूजा स्वरूप हडिय़ा भेंट करते हैं। पूर्वजों को भी हडिय़ा समर्पित करते हैं।

- हेरू सकम : चौथे दिन जंगल से साल के पेड़ का नया पत्ता लाते हैं। कहा जाता है कि इसी दिन लोगों को कपड़ा, औजार, घड़ा बनाने का ज्ञान प्राप्त हुआ था। सिबोंगा ने रेशम कीट के रूप में सूत निकालना और मकड़ी के रूप में कपड़ा बुनना सिखाया था।

- गुरिरूई या लोयो : पांचवें दिन गोवा बोंगा की पूजा की जाती है। इस दिन घर आंगन को गाय के गोबर से लीपा जाता है।

- मागे परब : छठे दिन दोपहर के बाद दिऊरी के घर आंगन में चुरुई बनाई जाती है। पूजा के लिए तीन मुर्गों की जरूरत होती है। दो मुर्गों की बलि जाहेरथान में दी जाती है। वहीं एक काली मुर्गी को वनदेवी के नाम पर छोड़ दिया जाता है। बाद में युवा तीर से शिकार करते हैं। इस दिन रातभर नाच गान होता है।

- जतरा : मुख्य परब के एक दिन बाद बासी परब मनाने की परंपरा है। इसे जतरा कहते हैं। इस दिन दिऊरी के आंगन से चुरुई उतारा जाता है। 


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