कॉपर कॉरिडोर में अब भी ‘पाथेर पंचाली’ के कई हरिहर, बस बदल गया क्लाइमेक्स
हरिहर..! विभूतिभूषण बंधोपाध्याय की लिखी पाथेर पंचाली (उपन्यास) का मुख्य किरदार है। उसी पाथेर पंचाली का जिसे घाटशिला में ही लिखा गया था।
जमशेदपुर। Jharkhand assembly Election 2019 समूह और समुदाय में विश्वास रखने वाले आदिवासी समाज की लोकतंत्र में गहरी आस्था है। चुनावी मौसम में इसे नजदीक से देखने-समझने दैनिक जागरण के समूह फोटो संपादक जगदीश यादव और उप मुख्य उपसंपादक भादो माझी निकले हैं झारखंड में जंगलों-पहाड़ों की खाक छानने। पढ़िए आदिवासी और लोकतंत्र सीरीज की अगली कड़ी:
हरिहर के दो बच्चे हैं। दुर्गा और पत्नी सर्बजया दोनों बच्चों का खूब ख्याल रखती है। गांव में हरिहर का परिवार गरीबी से संघर्ष करता है। गरीबी के कारण हरिहर के बाप-दादा की जमीन कर्ज के चलते दूसरे ले लेते हैं। उसके बच्चे उसी जमीन पर उगे पेड़ का फल चुराकर खाते हैं और पकड़े जाने पर ताना भी सुनते हैं। गरीबी से तंग आकर बेहतर जिंदगी और कुछ रुपये कमाने के लिए हरिहर गांव से निकल शहर में नौकरी की तलाश में जाता है..। वर्ष 1929 में लिखी गई हरिहर की इस कहानी ने सबको झकझोर दिया था।
हरिहर..! विभूतिभूषण बंधोपाध्याय की लिखी पाथेर पंचाली (उपन्यास) का मुख्य किरदार है। उसी पाथेर पंचाली का, जिसे घाटशिला में ही लिखा गया था। आज इस कहानी के 90 साल गुजर चुके हैं, लेकिन पूर्वी सिंहभूम जिले के घाटशिला के आसपास अब भी इस कहानी को जीने वाले कई हरिहर, कई सर्बजया और कई दुर्गा, अपु मौजूद हैं। तब के हरिहर की कहानी बंगाली पृष्ठभूमि पर केंद्रित थी, आज की हकीकत आदिवासी पृष्ठभूमि पर। आइए, आज के कुछ ऐसे ही हरिहर से मिलते हैं।
पहला लोकेशन केंदाडीह गांव। विशुद्ध आदिवासी गांव। संताल बहुल। पूर्वी सिंहभूम के जिला मुख्यालय जमशेदपुर से 40 किमी दूर घाटशिला से चंद मिनटों की दूरी पर कॉपर कॉरिडोर में बसा यह छोटा सा गांव। पहुंचते ही एक युवक सिर पर हेलमेट लगाए, पैरों में गंबूट (घुटने टेक वाले जूते) पहने साइकिल ठेलते घर के दरवाजे से निकलता दिखा। चेहरे पर मन मार कर मजदूरी के लिए जाने का आलस भाव था, जो साफ-साफ उसकी मजबूरी की चुगली कर रहा था। पूछने पर बताया कि केंदाडीह कॉपर माइंस में मजदूरी करने जा रहा हूं। दिहाड़ी के हिसाब से 703 रुपये मिलेंगे। खेती-बाड़ी है, लेकिन परिवार चलाने के लिए इतने से काम नहीं चलता, सो माइंस के अंदर बोगदा में मजदूरी करते हैं। नाम सुरेश हांसदा है। मैटिक तक पढ़े हैं। बस पास नहीं कर पाए। बताया कि गांव के लगभग सभी घर के युवक उसी की तरह कॉपर माइंस में मजदूरी करते हैं।
इलाके में एक-एक कर बंद होती गईं तांबा खदानें
पूर्वी सिंहभूम के घाटशिला स्थित केंदाडीह गांव में स्थानीय निवासी सुरेश हांसदा केंदाडीह कॉपर माइंस में ड्यूटी के लिए जाते।
समस्या तब ज्यादा बढ़ी गई थी जब पूर्वी सिंहभूम की कॉपर माइंस सुरदा, पाथरगोडा, केंदाडीह, बानालोपा, राखा माइंस वर्ष 1995 से 2003 के बीच एक एक कर बंद हो गईं। सांसद विद्युत वरण महतो और रघुवर दास की सरकार में कुछ माइंस खुली लेकिन ठीक से चालू नहीं हो पाईं। सुरेश हांसदा जैसे लोगों को उम्मीद है कि उन्हें कॉपर की धरती पर रहने का लाभ मिलेगा। उनकी कहानी का अंत पाथेर पंचाली की तरह नहीं होगा। अभी माइंस में काम करने वालों को स्किल के हिसाब से दिहाड़ी मिलती है। अनस्किल्ड को 503 रुपये, सेमी स्किल्ड को 603 और स्किल्ड को 703 रुपये। बात पूरी होने के बाद सुरेश माइंस की ओर निकल गए। पीछे से बैलों के लिए घास काटकर आ रहे भगमत सोरेन मिल गए। साइकिल के पिछले कैरियर पर घास लादे। गांव में नए लोगों को देखकर रुके। पूछने पर बताया कि गांव की अर्थव्यवस्था पहले कॉपर माइंस पर निर्भर थी। गांव के अधिकतर घर का कोई न कोई सदस्य हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड का स्थायी कर्मचारी था। कॉपर का दाम घटने की बात कह कर माइंस बंद होने लगी और इलाके की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई।
1939 में शुरू हुई थी कॉपर माइंस
रोचक बात यह कि जिस समय (1929) पाथेर पंचाली प्रकाशित हुई, उसके एक वर्ष बाद यानी 1930 में अंग्रेजों ने कॉपर माइंस की शुरुआत की थी। इसे सरकारी उपक्रम वर्ष 1977 में बनाया गया। तब से घाटशिला व आसपास की जिंदगी इस पर निर्भर हो गई। बहरहाल, लोकतंत्र के महापर्व पर एक बार फिर इस इलाके की उम्मीदें बढ़ गई हैं। वैसे तो नेता यहां आते नहीं, सिर्फ चुनाव में आते हैं। इसी बहाने कम से कम सभी माइंस खुल जाएं और स्थायी रोजगार का प्रबंध हो। रघुवर सरकार ने इसी साल फरवरी में 19 साल से बंद राखा माइंस को खोलने की कवायद शुरू की थी, लेकिन दस माह बाद भी चालू नहीं हुई। अब आस है कि नई सरकार आएगी तो माइंस पर ध्यान देगी। सिंहभूम के कॉपर कॉरिडोर का कल बदलेगा। वर्ष 1990 के बाद यहां स्थायी बहाली हुई नहीं, उम्मीद है अब कुछ होगा।
माइंस ने थोड़ी हालत संभाली, लेकिन पग-पग पर है गरीबी
विभूतिभूषण बंधोपाध्याय के हरिहर को जब नौकरी मिली तो उसके लौटने तक दुर्गा (उसकी बेटी) की बीमारी और धनाभाव के कारण मौत हो चुकी थी, लेकिन अब घाटशिला के इन गांवों में हरिहर समय रहते लौट आते हैं, क्योंकि रोजगार के लिए अब सिर्फ शहरों की निर्भरता नहीं है। अब के पाथेर पंचाली का क्लाइमेक्स बदल गया है। अब हैप्पी एंडिंग है। कॉपर माइंस हो जाने से रोजगार गांव तक आ गया है। गांव में इसका व्यापक असर तो नहीं दिखता, अलबत्ता गलियों में हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड के नेमटैग वाली सोलर लाइटें (स्ट्रीट लाइट) जरूर दिख जातीं। मकान कच्चे हैं, लेकिन इनके आंगन में होंडा बाइक खड़ी दिखती है। छत भले खपरैल, लेकिन ऊपर डिश एंटीना भी दिख जाते हैं। मासिक रिचार्ज 300 से 500 रुपये के आसपास आता है। जीवन यहां बदला है, लेकिन उम्मीदों से बहुत कम। शिकायत महज इतना कि अब भी रोजगार अस्थायी है। माइंस खुलने के बाद वर्ष 1990 के बाद से यहां किसी को स्थायी रोजगार नहीं मिला।