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स्वार्थ शब्द अपने आप में बुरा नहीं है

इस संसार में सभी स्वार्थ के कारण सगे बनते हैं। सारा संसार ही स्वार्थ के लिए अपना बनता है परंतु चतुर व्यक्ति वही है जो बिना किसी स्वार्थ के गुणी आदमी का सम्मान करता है।

By JagranEdited By: Published: Wed, 21 Oct 2020 07:07 PM (IST)Updated: Wed, 21 Oct 2020 09:39 PM (IST)
स्वार्थ शब्द अपने आप में बुरा नहीं है

स्वार्थ से दूरमीना विल्खू

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प्रधानाचार्या,

विद्या भारती चिन्मय विद्यालय,

टेल्को कॉलोनी, जमशेदपुर।

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कबीर की उक्ति है-

' स्वारथ का सबको सगा, सारा ही जग जान ।

बिन स्वारथ आदर करें, सो नर चतुर सुजान ।। इस संसार में सभी स्वार्थ के कारण सगे बनते हैं। सारा संसार ही स्वार्थ के लिए अपना बनता है परंतु चतुर व्यक्ति वही है, जो बिना किसी स्वार्थ के गुणी आदमी का सम्मान करता है।

स्वार्थ शब्द अपने आप में बुरा नहीं है, परंतु स्वार्थी मनुष्य अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए प्राय: दूसरों के हितों को हानि पहुंचा कर अपना हित साधता है इसलिए यह कितना बुरा है स्वयं सोचिए। स्वार्थी को धर्माधर्म की परवाह नहीं होती उसे परवाह रहती है तो केवल अपने मतलब की। मनुष्य ने अपनी स्वार्थपरता के कारण इस धरती को भी कहीं का नहीं छोड़ा। पृथ्वी जो कि हमारे जीवन का आधार है उसे भी अपने स्वार्थ के लिए नुकसान पहुंचा रहा है।

मनुष्य इच्छाओं का पुतला है उसका व्यावहारिक जीवन आकांक्षाओं से भरा पड़ा है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए वह दूसरों के लिए अपने आप को कष्ट नहीं देना चाहता। सूर्य, पवन, वरुण और वन-वृक्ष नि:स्वार्थ हैं। यदि ये स्वार्थ साधना में मग्न हो जाएं तो वर्तमान सृष्टि का क्या होगा। रसातल में नहीं चली जाएगी यह, पर नहीं सब मर्यादित हैं सबको अपनी हदों का भान है। हम तो उन्हीं पंचभूतों के जीते-जागते पुंज हैं, तो फिर स्वार्थ से दूर क्यों नहीं जी सकते।

राष्ट्रधर्म की ही बात लें तो वहां कर्तव्य ही कर्तव्य है। जब देश के नागरिक स्वार्थांध हों तो राष्ट्र या कि सामाजिक हित गौण हो जाता है और फिर चहुओर अधिकार और सिर्फ अधिकार का शोर सुनाई पड़ता है। वह शोर केवल शोर ही रह जाता है। आप ही बताइए व्यस्त चौराहे पर समस्त अपने ही अधिकारों की बात करें तो यात्रा वहीं अस्त नहीं हो जाएगी। राष्ट्र की बात हो; समाज की बात हो या फिर अपने परिवार की इनका अस्तित्व ही स्वार्थ से दूरी पर टिका है। स्मरणीय है कि जब हम स्वार्थ से दूरी बनाए रखने की साधना करते हैं तो केवल मेरे ही नहीं सबके हितों की साधना स्वत: होती जाती है; परस्पर विश्वास और प्रगाढ़ प्रेम बढ़ता है। सुख-शांति में पारस्परिक प्रेम कितना •ारूरी है, यह भी कोई कहने की बात है! स्वार्थ से दूरी तो प्रेमोदय का खाद-पानी है। उसे उगने दें; पल्लवित और पुष्पित होने दें। बढ़ें, कदम-कदम दूर; स्वार्थ से बहुत दूर।

एक बार निश्स्वार्थ भावना का सुख अनुभव कर लेने पर फिर कोई भी व्यक्ति स्वार्थ को पास नहीं ठहरने देगा। स्वार्थपूर्ण जीवन सबसे दुखदायी जीवन है । इसका परिणाम नरक जैसी परिस्थितियां उत्पन्न कर देता है । प्रसन्नतापूर्वक समर्पण भाव के साथ कार्य करते रहने से हमारा जीवन समग्र रूप से विकसित होता है । जिस समाज के लोग इसकी उपेक्षा करते हैं, वह समाज दरिद्रता, दुख, पाप और रोग ,भय और चिता, युद्ध और विनाश के दलदल में धंसकर मुक्ति के लिए छटपटाता है और मुक्ति है कि मिलती ही नहीं। मुक्ति है तो बस खुद को बदल लेने में यह मान लेने में कि मेरा कुछ भी नहीं। जो मेरा है वह सब तेरा दिया हुआ है अत: सर्वस्व तुझे अर्पित है। जो सुख दे देने में है वह सिफऱ् लेने ही लेने में कहां। आइए, मन से, वचन से और कर्म से मानवता की रक्षा में न्योछावर होकर जाचं लें कि प्रभु के वरदान प्राप्त होते हैं या नहीं।


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