फिल्म निर्देशक इकबाल दुर्रानी बोले, सामवेद जैसी बातें इस्लाम में भी; उर्दू व अंग्रेजी में किया अनुवाद
फिल्म निर्देशक व लेखक इकबाल दुर्रानी ने सामवेद का उर्दू व अंग्रेजी में अनुवाद किया है। इसका प्रकाशन व विमोचन मई-जून में होगा। विमोचन के लिए राष्ट्रपति से आग्रह करेंगे।
चाईबासा (पश्चिमी सिंहभूम), सुधीर पांडेय। जिले के जगन्नाथपुर में पले-बढ़े और चाईबासा में पढ़े फिल्म निर्देशक इकबाल दुर्रानी ने सामवेद का उर्दू और अंग्रेजी में अनुवाद किया है। विद्वानों की अनुमति मिलने के बाद इसका प्रकाशन व विमोचन फरवरी और मार्च के बीच में हो सकता है।
यह बात दुर्रानी ने बातचीत में दैनिक जागरण को बताई। उन्होंने बताया कि विमोचन के लिए राष्ट्रपति से आग्रह करेंगे। इकबाल ने कहा कि सामवेद में जो बातें लिखी गई हैं, वैसी ही कुछ बातें इस्लाम में भी हैं। लोगों को दूसरे धर्म के बारे में भी जानकारी रखनी चाहिए। कहा कि आज धर्म के नाम पर लोग बेवजह लड़ते हैं, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हम दूसरे धर्म के बारे में नहीं जानते हैं। इसलिए दूसरे धर्म के लोगों से नफरत करने लग जाते हैं।
उपहार में मिले वेद से आया अनुवाद का विचार
उन्होंने बताया कि लगभग तीन-चार साल पहले एक फिल्म का लोकेशन (फिल्माने की जगह) देखने उत्तरप्रदेश के एटा गया था। वहां एक मठ में सामूहिक हवन ने उन्हें आकर्षित किया। मठ में जाकर हवन की पूरी प्रक्रिया देखी। लौटते समय मुख्य पुजारी ने उपहार में चारों वेद दिए। इसके बाद वेदों को पढ़ा। इस पर उर्दू व अंग्रेजी में सामवेद के अनुवाद का विचार आया।
ढाई साल में पूरा हुआ अनुवाद
फिल्म निर्देशक के साथ-साथ लेखक और एक अच्छे कवि के रूप में भी अपनी पहचान बना चुके दुर्रानी ने बताया कि सामवेद के अनुवाद में ढाई साल का समय लगा। अनुवाद करने के बाद इसकी पांडुलिपि वेद के ज्ञाता पंडितों और विशेषज्ञों को पढऩे के लिए दी है, ताकि वेद की मूल भावना को ठेस नहीं पहुंचे। साथ ही प्रकाशन के बाद किसी तरह का विवाद नहीं हो। उन्होंने बताया कि इसका संपादन और प्रकाशन खुद कर रहे हैं। अगले साल यानि फरवरी-मार्च 2020 तक इसका प्रकाशन हो जाएगा। टाइङ्क्षपग का काम हो गया है।
दादा थे संस्कृत शिक्षक, उनकी प्रेरणा से कर पाया अनुवाद
वैसे तो इनका पैतृक गांव बिहार के बांका जिले के बौंसी बलुआतरी है। उनके दादा मरहूम शेख महमूद साठ के दशक में मोकामा के सीसीएमई हाई स्कूल में संस्कृत पढ़ाते थे। उन्होंने बताया कि वहां जाने पर हर कोई उन्हें पंडित का पोता कहता था। यह सुनकर उन्हें अच्छा लगता था। उन्होंने बताया कि आज उन्हीं की प्रेरणा से सामवेद का उर्दू और अंग्रेजी में अनुवाद कर पाया।
पिता जगन्नाथपुर में शिक्षक, मैट्रिक के बाद आए चाईबासा
उन्होंने बचपन का जिक्र करते हुए कहा कि पिता जगन्नाथपुर में शिक्षक थे। मैट्रिक की पढ़ाई वहीं की थी। उसके बाद इंटर से लेकर स्नातक तक की पढ़ाई चाईबासा के टाटा कॉलेज में की। 1974 में पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ समय पत्रकारिता की। इसके बाद फिल्म नगरी मुंबई का रुख कर लिया। पहली फिल्म 'कालचक्र' से पहचान मिली। इन्होंने कई फिल्मों की कहानी भी लिखी हैै। बेताज बादशाह, खुद्दार व धरतीपुत्र जैसी सुपर हिट फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैैं। दुर्रानी अभी एक बड़े बजट की फिल्म बना रहे हैं। यह फिल्म ङ्क्षहदी, अंग्रेजी व अरबी में बन रही है।
क्या है सामवेद में
'साम' शब्द का अर्थ है 'गान'। सामवेद में संकलित मंत्रों को देवताओं की स्तुति के समय गाया जाता था। सामवेद में कुल 1875 ऋचाएं हैं। जिनमें 75 से अतिरिक्त शेष ऋग्वेद से ली गयी हैं। इन ऋचाओं का गान सोमयज्ञ के समय किया जाता था।फिल्म निर्देशक इकबाल दुर्रानी ने ढ़ाई साल की मेहनत के बाद सामवेद का उर्दू और अंग्रेजी में अनुवाद पूरा कर लिया। अब इस पर विद्वानों की राय ले रहे हैं, ताकि वेद की मूल भावना को ठेस नहीं पहुंचे। साथ ही प्रकाशन के बाद किसी तरह का विवाद नहीं हो।
भगवान बिरसा पर बनेगी बड़ी बजट की फिल्म
भगवान बिरसा मुंडा पर 'गांधी से पहले गांधी' किताब लिख चुके दुर्रानी अब बड़ी बजट की फिल्म बनाएंगे। इसमें भगवान बिरसा मुंडा के संघर्ष को दुनिया में पहचान मिलेगी। उन्होंने कहा कि भारत देश आजादी के समय महात्मा गांधी ने अपना पूरा योगदान दिया था, लेकिन भगवान बिरसा मुंडा ने काफी पहले से ही अंग्रेजों से खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।
हो गीत के धुन को मिल सकती है बड़ी पहचान
टाटा कॉलेज चाईबासा में आयोजित सम्मान समारोह में देर शाम दुर्रानी ने कहा कि जब हो भाषा में स्वागत गीत गा रही थी तो मतलब नहीं समझ आ रहा था लेकिन एक सूर में इतना अच्छा है। इसे मुंबई जैसे इंडस्ट्री में लाने से पूरा देश और दुनियां इसके बारे में जान सकेगी। हो गीत के धून पर जरूर भविष्य में कुछ अच्छा किया जायेगा।
प्राचार्या ने सौंपी डिग्री
1974 बैच में विज्ञान संकाय में स्नातक करने वाले इकबाल को टाटा कॉलेज की प्राचार्या प्रो. कस्तूरी बोयपाई ने गुरुवार को डिग्री सौंपी। दरअसल 44 साल के बाद वे यहां आए हैं। इनकी डिग्री कॉलेज में सुरक्षित थी। उस वक्त रांची विश्वविद्यालय हुआ करता था।
232 रुपया लेकर पहुंचा था मुंबई
इकबाल दुर्रानी ने कहा कि पहली बार मुंबई गया तो रहने के लिए जगह नहीं थी। गुलशन लॉज में उस समय 25 रुपये में एक माह के लिए कमरा मिला था लेकिन पैसा नहीं होने की वजह से लॉज के नौकरों के कमरा में 10 रुपये देकर रहने लगा। इस प्रकार 7 साल तक संघर्ष करता रहा। लगभग 10 साल के संघर्ष के बाद सफल हुआ।