तस्मै श्री गुरुवे नम: छड़ी की मार से होता था जख्म, बाद में समझा गुरु का मर्म
गुरु को भगवान का दर्जा यूं ही नहीं दिया गया है। आइए जानिए किस तरह अपने गुरु को याद करते हैं पूर्वी सिंहभूम के उपविकास आयुक्त विश्वनाथ माहेश्वरी।
जमशेदपुर, वीरेंद्र ओझा। मैं आज जो कुछ भी हूं, उसमें स्कूल पढ़ाई के दौरान शिक्षकों का बड़ा योगदान रहा है। मेरी स्कूली शिक्षा लखीसराय के कनिराम खेतान (केआरके) हाईस्कूल से हुई। वहीं से 1977 में मैट्रिक किया। वैसे तो स्कूल में जितने भी गुरु (शिक्षक) रहे, सभी पूजनीय हैं, लेकिन उनमें से कुछ शिक्षकों की याद आज भी आती है। केशव प्रसाद, रामावतार पांडेय, नरसिंह प्रसाद सिंह और प्राचार्य वर्मा जी।
सभी दिवंगत हो चुके हैं, बड़े मन से पढ़ाते थे। छोटी-छोटी गलती पर मुझे भी खजूर की छड़ी से मार पड़ती थी। तब जख्म होता था, काफी दर्द भी होता था। इसके बावजूद अभिभावक कभी शिकायत लेकर स्कूल नहीं गए। उस समय तो समझ में नहीं आया, लेकिन जब मैं पटना यूनिवर्सिटी गया, वहां यूनिवर्सिटी टॉपर बना तब समझ में आया कि मेरे जीवन में उनका क्या योगदान रहा।
मिली नेशनल स्कॉलरशिप
यूनिवर्सिटी टॉपर होने की वजह से मुझे बीएससी, फिर एमएससी में नेशनल स्कॉलरशिप मिली। इससे मुझे उच्चशिक्षा में काफी मदद मिली। वैसे मेरे लिए सबसे बड़े गुरु माता-पिता रहे। पिताजी स्व. छगनलाल माहेश्वरी स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्हें लखीसराय में सभी जानते थे। 42 के आंदोलन में उन्हें ब्रिटिश सरकार की पुलिस ने काफी मारा था, जिससे उनका शरीर भी झुक गया था। उन्होंने हम चारों भाई को इस बात की हमेशा प्रेरणा देते थे कि किसी भी परिस्थिति में पढ़ाई मत छोड़ना। माता स्व. नारायणी देवी भी हम भाइयों का भरपूर ख्याल रखती थी।
चारों भाई पहुंचे उंचे ओहदे पर
इसी का परिणाम रहा कि चारों भाई अच्छे ओहदे पर पहुंचे। आज ना तो वैसे शिक्षक हैं, ना छात्र या अभिभावक। गुरु-शिष्य का अर्थ ही बदल गया है। शिक्षक दिवस के अवसर पर मैं अपने माता-पिता सहित उन सभी शिक्षकों को कोटि-कोटि नमन करता हूं, जिन्होंने मेरा जीवन संवारने में किसी न किसी रूप में सहयोग किया।