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यहां आज भी पिड़ी पर होती मां दुर्गा की पूजा

गोड्डा प्रखंड के जमनी पंचायत स्थित सिंह वाहिनी स्थान में आज भी पिडी से मां दुर्गा की पूजा अर्चना की जाती है। सिंह वाहिनी स्थान को शक्तिपीठ के रूप में

By JagranEdited By: Published: Sat, 24 Oct 2020 06:11 PM (IST)Updated: Sun, 25 Oct 2020 05:07 AM (IST)
यहां आज भी पिड़ी पर होती मां दुर्गा की पूजा
यहां आज भी पिड़ी पर होती मां दुर्गा की पूजा

जागरण संवाददाता, गोड्डा : गोड्डा प्रखंड के जमनी पंचायत स्थित सिंह वाहिनी स्थान में आज भी पिडी से मां दुर्गा की पूजा अर्चना की जाती है। सिंह वाहिनी स्थान को शक्तिपीठ के रूप में विश्व विख्यात है। यहां प्रतिदिन दूर दराज क्षेत्रों से श्रद्धालु मन्नत मांगने माता सिंह वाहिनी के मंदिर आते हैं। श्रद्धालुओं का कहना है कि मां सिंह वाहिनी के दरबार में भक्तों की मुराद पुरी होती है। राज घराने की थी कुलदेवी : मंदिर के पंडित रमाकांत रमाकांत ओझा, भक्त अनंत सिंह चौहान, हीरालाल यादव, रमाकांत मरीक, अशोक यादव, सुमित सिंह, श्याम किशोर सोरेन आदि का कहते हैं कि पहले मां सिंह वाहिनी मंदिर हवेली खड़गपुर के राजा गोपाल प्रसाद सिंह के अधीन था। बाद में इसे बनेली स्टेट के राजा कृत्यानंद सिंह ने 8000 रुपये की लागत से खरीद लिया। जब जमीनदारी प्रथा खत्म होने लगी तब राजा ने अपनी कुलदेवी की सोने की प्रतिमा को अपने साथ पाकुड़ जिले के महेशपुर लेते गए। बलि भी कम पड़ गई : एक कथा के अनुसार मां की प्रतिमा को हाथी पर रखकर पाकुड़ ले जाया जा रहा था। हाथी प्रतिमा को लेकर चल नहीं पा रहा था। बाद में राजा को स्वप्न आया और जहां पर हाथी पैर रखता वहां पर बकरे की बलि दी जाती थी। कहा जाता है कि बेलबथान गांव के समीप बली ही खत्म हो गयी। तत्पश्चात एक एक कोस की दूरी पर बलि दिये जाने लगा। तब जाकर मां सिंह वाहिनी की प्रतिमा पाकुड़ जिले के महेशपुर राज्य जे जाया गया। करीब 30 वर्ष पूर्व वहां से माता की प्रतिमा भी चोरी हो गई।

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क्यों होती है पिंडी की पूजा : कहा जाता है कि जब मां की प्रतिमा को यहां से ले जाया गया। तब यहां के तत्कालिन पंडित ने अन्न जल त्याग दिया। उसके बाद मां ने पंडित को स्वप्न दिया कि तुम यहां पर प्रतिमा की जगह पिडी स्थापित कर पूजा करो। जो फल पहले मिलता था, वह मिलते रहेगा। इसके बाद से ही मां सिंह वाहिनी मंदिर में पिडी से पूजा की जाने की परंपरा शुरू हो गई, जो आज भी जारी है। वैद्य और पंजियारा परिवार ने बनाया मंदिर : जमीनदारी प्रथा समाप्त होने के बाद इस स्थान को गांव के ही चमरू घटवार ने खरीद लिया। बाद में मंदिर का निर्माण वैद्य एवं पंजवारा परिवार ने करवाया। आज भी मां की पहली पूजा इन्हीं के वंशज करते हैं।


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