Coronavirus आया तो डरा रही साठ के दशक की महामारी की याद, धनबाद में दो हजार लोगों की गई थी जान; जानिए
उन दिनों पूरे देश में हैजा का प्रकोप फैल गया था इसलिए धनबाद भी अछूता नहीं रहा था। हालांकि उनदिनों स्वास्थ्य विभाग की कार्यप्रणाली उतनी उन्नत नहीं थी इसलिए पूरा रिकॉर्ड नहीं है।
धनबाद [ बनखंडी मिश्र ]। मौजूदा समय में कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया की नींद उड़ा रखी है। क्या विकसित और क्या विकासशील देश; सभी इस वायरस के प्रकोप का सामना करने में हांफ रहे हैं। कारण, इसका तेजी से प्रसार, मृत्यु दर और लोगों का भयभीत होना और तुरंत इसका समाधान न निकाल पाना। यूं तो भारत में इस वायरस से मरने वालों की संख्या अंगुलिगण्य है। लेकिन, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इसे महामारी घोषित करने के बाद यहां की सरकार रोग के इलाज के लिए काफी सचेष्ट हो गई है। कोरोना वायरस के रूप में फैली बीमारी भले ही एक नई बात हो, लेकिन ऐसा देखा गया है कि हर शताब्दी में कोई न कोई ऐसी बीमारी महामारी के रूप में जनसामान्य के बीच आती है और जबतक इसका समुचित कोई काट निकाला जाता है, तब तक कई लोगों को लील चुकी होती है।
हैजा और चेचक बनी थी महामारी
भारत में हैजा और चेचक कोहराम मचा चुकी है। यूं, तो आजादी से पूर्व, प्लेग से काफी लोगों की जान चली गई थी। उन दिनों अंग्रेजों का शासन था। गुजरात इस बीमारी से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था। ब्रिटिश भारत की सरकार को इस बीमारी पर नियंत्रण करने में पूरे बीस साल लग गए थे। लंदन के अखबारों ने इस बीमारी की तुलना 'मध्यकालीन शाप' से की थी। स्वतंत्रता के आस-पास, देश में एक बीमारी फैली और बड़ी तेजी से महामारी का रूप ले लिया-उसे लोग हैजा (कॉलरा) के नाम से जानते हैं। गंदा पानी पीने के कारण शुरू होने वाली यह बीमारी मरीज को संभलने का मौका नहीं देती थी और सीधे मौत के मुंह में धकेल देती थी।
धनबाद में 1950-60 में 1514 लोगों की हैजा से हुई थी मौत
चूंकि, उन दिनों पूरे देश में हैजा का प्रकोप फैल गया था, इसलिए धनबाद भी अछूता नहीं रहा था। हालांकि, उनदिनों स्वास्थ्य विभाग की कार्यप्रणाली उतनी उन्नत नहीं थी, इसलिए पूरा रिकॉर्ड नहीं है। लेकिन, जो उपलब्ध आंकड़े हैं, उसके मुताबिक 1950 ई. से लेकर 1960 ई. तक केवल हैजा के कारण धनबाद जिले में कुल 1514 लोग काल के गाल में समा गए थे। इन दस वर्षों में सबसे ज्यादा मौत 1950 ई. में हुई थी, जब 659 लोग हैजा के कारण मरे थे। वहीं, सबसे कम मौत 1959 ई. में हुई थी। उस साल 40 लोगों को हैजा के कारण अपने प्राण गंवाने पड़े थे।
10,09,586 लोगों को लगाया गया था टीका
उन दिनों मेडिकल सांइस उतना विकसित नहीं था और न ही निजी अस्पताल या जांच घर हुआ करते थे। स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह सरकार के भरोसे थी। वाइब्रियो कॉलरी नामक बैक्टीरिया से फैलने वाले हैजा के प्रकोप से लोगों को बचाने के लिए सरकार ने हरसंभव प्रयास किए। बड़े पैमाने पर जागरूकता कार्यक्रम चलाए गए। लोगों से, न गंदा पानी पीने और न गंदा भोजन करने की अपील की गई थी। हर घर को साफ पीने का पानी मुहैया कराने की व्यवस्था नहीं थी, तो कुओं और तालाबों (जहां का पानी लोग प्रयोग में लाते थे) में क्लोरीन डाली जाती थी। सरकार ने टीकाकरण अभियान भी चलाया था, ताकि हैजा के प्रकोप से कोई प्रभावित न हो। 1950 ई. से लेकर 1960 ई. तक कुल दस लाख, नौ हजार पांच सौ छियासी लोगों को टीका लगाया गया। सबसे अधिक वर्ष 1958 में (06,53,027) लोगों को टीका लगाया गया था।
1950-60 में चेचक से 847 लोगों की चली गई थी जान
चेचक भी एक ऐसी महामारी थी, जिसने धनबाद को खासा प्रभावित किया था। यह देखा गया था कि अक्टूबर-नवंबर से शुरू होकर जून तक इसका प्रकोप ज्यादा होता था। चेचक की वजह से 1950 ई. से लेकर 1960 ई. तक कुल 847 लोगों की मौत हुई थी। इसमें वर्ष 1955, 1958 और 1960 का डाटा उपलब्ध नहीं है। सबसे अधिक 1951 ई. में 282 मौत हुई थी। वहीं, सबसे कम संख्या 1953 ई. की है, जब महज 14 लोगों की जान चेचक की वजह से गई थी।
दो फेज में 2,56,229 और 17,20,423 लोगों को लगाया गया था टीका
चेचक से लोगों को बचाने के लिए सरकार ने जो टीकाकरण अभियान चलाया, वह दो फेज में चला था। प्रारंभिक टीकाकरण अभियान में वर्ष 1950 ई. से 1960 ई. तक की अवधि में 2,56,229 लोगों को टीका लगाया गया था। इसमें सबसे अधिक 1956 ई. में 40,474 लोगों को और सबसे कम 1960 ई. में 19,749 लोगों को टीका लगाया गया था। टीकारण अभियान के दूसरे चक्र में कुल 17,20,423 लोगों को टीका लगाया गया था। इसमें सर्वाधिक टीका 1956 ई. में 3,23,472 लोगों को एवं सबसे कम 1950 ई. में 69,330 लोगों को टीका लगाया गया था।
ऐलोपैथी चिकित्सा पद्धति के बदले हकीम और वैद्य पर था लोगों का भरोसा
उन दिनों लोग ऐलोपैथी चिकित्सा पद्धति से इलाज कराने के बदले लोग हकीम और वैद्य का सहारा लेते थे। हकीम यूनानी पद्धति से और वैद्य आयुर्वेदिक पद्धति से इलाज किया करते थे। ऐलोपैथी दवा या टीका लेने से लोग कतराते थे। झाड़-फूंक के माध्यम से भी इलाज करवाते थे। इसलिए ओझा के पास अपना मर्ज लेकर जाते थे। अफीम, जायफल, नींबू का रस, कपूर, सिरका आदि का प्रयोग तबीयत खराब होने की स्थिति में किया जाता था।