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Coal Industry: जब कोयला मजदूरों का एक ही धर्म था, खदान के अन्दर ही होता गर्भाधान और जन्म, जानिए

रानीगंज कोलफील्ड की प्रगति के पीछे उद्यमियों एवं निवेशकर्ताओं का उत्साह काम करता था। भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता से निकटता का लाभ भी उनको मिलता था।

By MritunjayEdited By: Published: Sun, 08 Sep 2019 01:23 PM (IST)Updated: Sun, 08 Sep 2019 01:23 PM (IST)
Coal Industry: जब कोयला मजदूरों का एक ही धर्म था, खदान के अन्दर ही होता गर्भाधान और जन्म, जानिए
Coal Industry: जब कोयला मजदूरों का एक ही धर्म था, खदान के अन्दर ही होता गर्भाधान और जन्म, जानिए

धनबाद [बनखंडी मिश्र ]।1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद, भारत में चतुर्दिक परिवर्तन का जो तूफान आया, उससे पूरे विश्व का सामाजिक, वैचारिक एवं औद्योगिक परिवेश पूर्णतया प्रभावित हुआ। एक ओर इस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक नीतियों व ब्रिटिश सरकार के प्रशासनिक संबंधों में बदलाव आया और दूसरी ओर भारतीय पुनर्जागरण का जो बिगुल फूंका गया, उसकी अनुगूंज देश-विदेश में सुनाई पडऩे लगी। परिवेशगत इस प्रभाव से देश के जो उद्योग-व्यवसाय प्रभावित हुए, उसी में कोयला उद्योग भी आता है।

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तत्कालीन राजधानी कलकत्ता से निकटता का मिला लाभः रानीगंज कोलफील्ड की प्रगति के पीछे उद्यमियों एवं निवेशकर्ताओं का उत्साह काम करता था। भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता से निकटता का लाभ भी उनको मिलता था। यदि सच पूछा जाय, तो 1912 के दिल्ली दरबार के पहले तक कलकत्ता का अर्थ होता था-हर मोर्चे पर देश का सर्वश्रेष्ठ नगर। भारतीय कोयला उद्योग और इसके व्यावसायिक पहलुओं का प्रभाव इंग्लैंड के कोयला उद्योग पर भी निश्चित रूप से पड़ा। कहनेवाले तो यहां तक कह चुके थे कि 'उल्टे बांस बरेली की तर्ज पर' न्यू कैसल के बाजार में भारतीय कोयले ने अपनी महत्ता सिद्ध कर दी थी। लेकिन, कोयला उद्योग की विविध ज्ञात-अज्ञात जटिलताओं से रूबरू होने में आगे चलकर भारतीय उद्योगपतियों को जो मशक्कत करनी पड़ी, वह काफी हैरतअंगेज थी।

मजदूरों का पलायन रोकना जटिल समस्या थीः झरिया कोलफील्ड में स्थानीय पूंजी के अतिरिक्त, विदेशी निवेश भी काफी हो चुका था। श्रम के नाम पर मजदूरों को जुटाना, उनको टिकाना और उनके आकस्मिक पलायन को रोकना बड़ी समस्या थी। उन दिनों खनन का तकनीकी विकास भी बिल्कुल नगण्य रूप में हुआ था। इसलिए कोयला भंडारों का सर्वेक्षण और उत्पादक बिन्दुओं का निर्धारण नौसिखुए लोगों पर निर्भर था। इसमें तकनीकी कामगारों के लिए रानीगंज के घिसे-पिटे और थके-हारे व्यक्तियों पर निर्भर करना पड़ता था। ऐसे प्राणी अपने को 'विशेषज्ञ' मानते थे। हां, विदेशी कंपनियों में, भारत के बाहरी देशों से, विशेषकर इंग्लैंड के अनुभवी एवं प्रशिक्षित ओवरमैन और प्रबंधक आदि काम करते थे। देशी उद्योगपतियों को उनका मोहताज होना पड़ता था। वे विदेशी कंपनियों में मिलने वाले वेतन की तुलना में अधिक रकम देने के लिए मजबूर होते थे। अधिकांश खदानों में कोई देशी-विदेशी प्रशिक्षित अधिकारी- एक से अधिक स्थानों से वेतन उठाता था। बाद में, जब धनबाद (1901) में चीफ इंस्पेक्टर ऑफ माइंस का दफ्तर खुल गया और मि.जे.ए.स्टोनर प्रथम चीफ इंस्पेक्टर नियुक्त होकर आए, तो थोड़ी आसानी हुई। विभिन्न अन्य कंपनियों ने भी इस दफ्तर से सहयोग लिया और विकास की दिशा में बढ़ चली। 1908 तक आते-आते झरिया कोयला क्षेत्र में लगभग 50 कंपनियां बन गई और कुल निवेश लगभग 283 लाख रुपयों का हो चुका था।

20-20 घंटे काम करते थे मजदूरः झरिया के स्थानीय कोलियरी मालिकों को भी मानभूम के पुरुलिया, चास, चंदनकियारी, टुंडी, गोविंदपुर, तोपचांची, निरसा, हजारीबाग, गिरिडीह, मुंगेर, भागलपुर, संथाल परगना और गया के सुदूर गांवों से मजदूर जुटाना पड़ता था। ऐसे मजदूर कभी अकेले आते, कभी गांव से चलने वाले समूह के रूप में आते, कोई-कोई तो अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आता। उन मजदूरों की कोई जाति नहीं होती। वैचारिक आदान-प्रदान करने के लिए विविध लोक भाषाएं होती थी। बांग्ला, खोरठा, मुंडारी, नागपुरिया, संथाली, मगही, मैथिली का अपभ्रंश अंगिका, पंजाब और बलूचिस्तान की पंजाबी और पोश्तू भाषाएं होती थी। कोयला उद्योग से जुड़े एक पुराने अफसर मि.आर. पुरडी ने एक विभागीय गोष्ठी में उनका बड़ा सजीव विवरण दिया है। सच पूछिए तो वह मजदूर समूह-निर्धन भारत के वास्तविक प्रतिनिधि होते थे। उनका एक ही धर्म होता था अपनी और अपने आश्रितों की जठराग्नि शांत करना। वे जिस महत्वपूर्ण उद्योग के लिए खून-पसीना एक करते थे, उसकी वास्तविक महत्ता से वे पूर्णतया अनभिज्ञ होते थे। वे नहीं जानते थे कि काम करने के लिए कितने घंटे की पाबंदी होती है। ऐसे भी असंख्य प्रमाण मिले हैं कि वे उन दिनों बीस-चैबीस घंटे लगातार काम करते थे। कभी-कभी तो कोई मजदूर बैलगाड़ी या भैंसागाड़ी पर सवार होकर सुरंगवाली (इंक्लाइन माइन) के अन्दर सपरिवार घुसता था और हफ्ता-दस दिनों के बाद ही पुन: सूर्य के प्रकाश को देख पाता था। इस अवधि में खदान के भीतर ही उसका सारा संसार सिमट जाता था और वे सभी कृत्य वहीं करते थे। खदान के अन्दर ही गर्भाधान और जन्म होता था नये शिशु का। वे ही असल में पातालवासी थे। वे ही रत्नगर्भा धरती का आलोडऩ-विलोडऩ कर संपदा जुटाते थे, जिसे कोयला या काला हीरा के नाम से अभिहित किया जाता था।

तब खदान के अंदर विस्फोट समझा जाता था भूत-प्रेत का खेलः उन दिनों खदानों के अंदर के खतरनाक गैसों का पता नहीं चला था, वैसी हालत में वहाँ किरासन तेल की कुप्पी जलाना वर्जित नहीं था। बाजारों में लंबी डंडी वाली कुप्पियाँ बिकती थीं, जो प्रत्येक मजदूर के कंधे या कमर से लटकी होती थी, जिसके मद्धिम प्रकाश में वे अपने नियोक्ता व अन्नदाता उद्योगपति या ठेकेदार का भविष्य उज्ज्वल करते थे। कहीं भूल-चूक से, आकस्मिक विस्फोट हो जाता, तो उसे भूत-प्रेत का खेल समझा जाता था। घायलों को इलाज के लिए उचित दवाइयां भी तत्काल उपलब्ध नहीं होती थीं। ऐसी दुर्घटनाओं में मरने वालों को जाति-धर्म से निरपेक्ष होकर खदान के अतल अंधकार में दफन कर दिया जाता था या दिवंगत मजदूर को उनके उत्पादित कोयले के बीच डालकर अग्नि संस्कार कर दिया जाता था। ऐसे घायल या मृत मजदूरों के आश्रितों को मुआवजा के नाम पर छोटी सी रकम दे दी जाती थी। श्राद्ध या चालीसवें की शिरनी के लिए कुछ सिक्के दे दिए जाते थे और चंद दिनों में पूरी की पूरी घटना धूमिल हो जाती थी। यही था कोयला मजदूरों का प्रारंभिक हाल, उनके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की योजनाएं बस आकाश-कुसुम थी जिसके रंग, रूप या रस का आस्वादन वह भारत नहीं कर पाता था।


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