झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन की राजनीतिक पारी खत्म, संताल में अब सुनील नया आदिवासी चेहरा
इतिहास अपने आप को दोहराता है। संताल में पूरे 21 साल बाद दोहरा रहा है। पहले बाबूलाल मरांडी और अब सुनील सोरेन ने झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन को उन्हीं के अखाड़े दुमका में शिकस्त दी है।
मृत्युंजय पाठक, धनबाद: इतिहास अपने आप को दोहराता है। संताल में पूरे 21 साल बाद दोहरा रहा है। पहले बाबूलाल मरांडी और अब सुनील सोरेन ने झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन को उन्हीं के अखाड़े दुमका में शिकस्त दी है। इस हार के साथ ही शिबू सोरेन की राजनीतिक पारी करीब-करीब खत्म हो गई है। वहीं झारखंड की राजनीति में एक नया आदिवासी चेहरा सुनील सोरेन का उदय हुआ है।
झामुमो प्रमुख को शिकस्त देने का इनाम भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व सुनील को दे दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित दुमका लोकसभा क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी सुनील सोरेन के लिए इतिहास दोहराने का समय था। जो उन्होंने दोहरा दिया। 21 साल पहले बाबूलाल मरांडी की देश की राजनीति में कोई पहचान नहीं थी। वे भाजपा प्रत्याशी के रूप में 1998 के लोकसभा चुनाव में झामुमो प्रमुख शिबू को उनके ही गढ़ दुमका में शिकस्त देकर छा गए थे। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन की सरकार बनी तो वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बनाए गए। 15 नवंबर 2000 को बिहार को विभाजित कर नए झारखंड राज्य का सृजन हुआ तो भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री बनाया। उनकी गिनती देश के प्रमुख आदिवासी नेताओं में होने लगी। यह अलग बात है कि बाद में ( 2006) बाबूलाल ने भाजपा से अलग होकर झारखंड विकास मोर्चा नामक पार्टी बना ली।
लोकसभा चुनाव- 2019 की लड़ाई में वह दुमका में झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन का बेड़ा पार लगाने के लिए उनके साथ खड़े थे। बावजूद, सुनील ने दिशोम गुरु शिबू को पराजित कर दिया है। भाजपा ने पहली बार बाबूलाल मरांडी को 1991 में झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के खिलाफ दुमका में चुनाव लड़ाया। सफलता नहीं मिली। दूसरी बार 1996 में शिबू को चुनौती दी। इस बार भी सफलता नहीं मिली। बाबूलाल ने हिम्मत नहीं हारी। तीसरी बार 1998 के लोकसभा चुनाव में बाबूलाल ने शिबू सोरेन को शिकस्त दी। संयोग से भाजपा प्रत्याशी सुनील सोरेन भी तीसरी लड़ाई में शिबू को शिकस्त दी। इससे पहले वह दुमका के अखाड़े में शिबू के सामने 2009 और 2014 के चुनाव में भी ताल ठोक चुके थे।
शिबू सोरेन को शिकस्त देने वाले सुनील सोरेन की राजनीतिक पृष्ठभूमि झामुमो की ही रही है। वे झामुमो से ही भाजपा में आए हैं। उन्हें झामुमो का हर दांव-पेंच मालूम था। मोदी के नाम और काम का साथ मिला। नतीजा उन्होंने करिश्मा कर दिखाया।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार नौवीं बार सांसद बनने के लिए चुनाव लड़ रहे शिबू सोरेन की हार झामुमो के लिए बड़ा झटका है। इस हार के साथ ही करीब-करीब शिबू सोरेन की राजनीतिक पारी खत्म हो गई है। अधिक उम्र के कारण वह पहले ही वह कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर पार्टी की कमान अपने बेटे हेमंत सोरेन को सौंप चुके हैं। दूसरी तरफ सुनील ने हैवीवेट शिबू को पराजित कर सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। संताल में भाजपा के पास कोई बड़ा आदिवासी फिगर नहीं था। अब सुनील सोरेन हैं।
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