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जानें-नाैका यात्रा के चक्कर में ईस्ट इंडिया कंपनी के दो कर्मचारियों ने कैसे खोजा कोयले का भंडार

Coal History जॉन सन्मर और एसजी हिव्ट्ली ने एकबार बराकर नदी में नौकायात्रा करते हुए धारा के तल में काले पत्थर के कुछ टुकड़ों को इकट्ठा करवाया और उसकी एक गठरी कलकत्ता ले गए।

By mritunjayEdited By: Published: Sat, 15 Jun 2019 10:18 AM (IST)Updated: Sun, 16 Jun 2019 08:41 AM (IST)
जानें-नाैका यात्रा के चक्कर में ईस्ट इंडिया कंपनी के दो कर्मचारियों ने कैसे खोजा कोयले का भंडार
जानें-नाैका यात्रा के चक्कर में ईस्ट इंडिया कंपनी के दो कर्मचारियों ने कैसे खोजा कोयले का भंडार

धनबाद, बनखंडी मिश्र। भारत में विधिवत कोयला खनन का काम, रानीगंज के मेजिया नामक स्थान पर 1840 के आसपास शुरू हुआ। इसके बहुत पहले 1774 में, ईस्ट इंडिया कंपनी के दो तेज तर्रार कर्मचारियों (जॉन सन्मर और एसजी हिव्ट्ली) ने भारत में कोयला उद्योग-व्यापार का जो सूत्र पाया था, उसकी कहानी अजीबोगरीब है।

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जॉन सन्मर और एसजी हिव्ट्ली ने एकबार बराकर नदी में नौकायात्रा करते हुए, धारा के तल में काले पत्थर के कुछ टुकड़ों को इकट्ठा करवाया और उसकी एक गठरी कलकत्ता ले गए। वहां उन लोगों ने काले पत्थरों की ज्वलनशीलता की जांच की, तो लगा कि वह पत्थर, इंग्लैंड न्यू कैसल से आयातित कोयले के समान ही है। वे दोनों मित्र, दुबारा रानीगंज लौट आए तथा ग्रामीणों की मदद से, काले पत्थरों के टुकड़े बटोरने शुरू किए और उनको कलकत्ता स्थित फोर्ट विलियम के रसोईघर में खपाने की योजना बनाई। उन दोनों की कोशिशों ने जो रंग लाया, उसी का परिवर्तित और आधुनिक रूप है, आज का भारतीय कोयला उद्योग।

रानीगंज के बाद, बराकर नदी के पश्चिमी इलाके झरिया कोयला क्षेत्र का पता, सबसे पहले लेफ्टिनेंट हैरिंगटन ने 1839 में लगाया। उनकी इस खोज से प्रेरित होकर, कुछ कोयला उत्पादक व्यापारियों ने, झरिया, कतरासगढ़ और रामगढ़ (महुदा) के राजघरानों से संपर्क करना शुरू किया। उन विदेशी कोयला कंपनियों में से मेसर्स बोरोडेल एंड कंपनी ने, झरिया राज के मालिक के पास दरख्वास्त लगाई कि थोड़ी-सी जमीन लीज पर देने की कृपा करें, तो झरिया कोयला क्षेत्र में खनन का सूत्रपात हो सकेगा। संयोगवश, पारिवारिक कारणों से राजघराने ने कोई समझौता नहीं किया।

बाद में, 1866 में जब मिटी डब्ल्यू ह्यूज ने झरिया कोयला क्षेत्र का भूगर्भीय सर्वेक्षण किया और ब्रिटिश सरकार को विश्वास दिलाया कि इस क्षेत्र में उच्च कोटि का कोयला मिलने की संभावना है, जो लौह-उद्योग के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। उनकी इस रिपोर्ट के आधार पर एक अन्य भू-वैज्ञानिक डॉ. बी. बॉल ने 1887 में एक ऐसी घोषणा की 'ईस्ट इंडियन रेलवे' कंपनी बहुत प्रभावित हुई है और अपनी ओर से 1890 में मिटीएच वार्ड नामक भू-विज्ञानी द्वारा दूसरे क्षेत्र का सर्वेक्षण करवाया। मि. वार्ड की रिपोर्ट से सनसनी फैल गयी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि झरिया कोयला क्षेत्र में 80 करोड़ 40 लाख कोककारी कोयला मिल सकता है। इस जानकारी से प्रभावित हो रेलवे कंपनी ने पूरी तैयारी के साथ बराकर से कतरासगढ़ तक के लिए नई रेलसेवा 1895 में शुरू कर दी। इसी क्रम में कुसुंडा से पाथरडीह तक की रेललाइन तैयार की गई, जिससे कि भविष्य में उत्पादित कोयले की ढुलाई में आसानी हो।

उपर्युक्त तैयारियों की गहमागहमी में, देश-विदेश के दर्जनों कोयला-उद्योगपति व्यापारी, झरिया कोयला क्षेत्र में कूद पड़े। 1890 के दशक में कोयला उत्पादन का महायज्ञ शुरू हो गया। 1893 में ईस्ट इंडिया कोल कंपनी और बर्ड कंपनी के साथ, कच्छ के एक प्रसिद्ध व्यापारी गोपालदास ने समझौता किया। कच्छ के राजपरिवार के मुख्य कार्यवाहक अधिकारी एसडी मेहता ने झरिया व्यापार क्षेत्र के प्रसिद्ध व्यवसायी अग्रवाल परिवार के साथ समझौता किया। इन समझौतों के उपरान्त 1893 में लोयाबाद, 1894 में बलिहारी और कच्छी बलिहारी तथा तिसरा क्षेत्र में जमकर खनन-कारोबार शुरू हो गया। 1894 में कोयले का उत्पादन 1500 टन हुआ। धीरे-धीरे उत्पादन में तेजी आई। 1900 तक बहुत सारी नई-नई कंपनियां मैदान में आ गईं। इसके फलस्वरूप 1901 में झरिया कोयला क्षेत्र में 20 लाख टन कोयले का उत्पादन हुआ। 1907-08 तक में झरिया कोयला क्षेत्र में विधिवत् 112 कोलियरियां चालू हो गईं और वार्षिक उत्पादन 60 लाख टन की सीमा को छू गया।

ब्रिटिश हुकूमत से मुक्ति दिलाने के लिए गठित कांग्रेस पार्टी के चौथे राष्ट्रीय सम्मेलन (1880 में इलाहाबाद में आयोजित) की अध्यक्षता बंगाल के एक कोयला उद्योगपति जॉर्ज यूल ने जब की, तो पूरे देश के बौद्धिक समाज ने कोयले की महत्ता समझी। तकनीकी दृष्टि से रानीगंज क्षेत्र के कोयले की तुलना में, झरिया क्षेत्र के उत्पाद में गुणवत्ता अधिक थी। फलत:, समग्र उत्तरी भारत के व्यापारिक समाज का ध्यान, कोयला व्यापार की ओर तुरंत आकर्षित हुआ और अमेरिका में शुरू हुए 'गोल्ड रश' (24 जनवरी 1848) की तरह भारत में 'कोल रश' का उफान आया और मामूली परचूनिया से लेकर, राजे-महाराजे तक कोयले के लिए झरिया की तरफ भागे चले आए। राजस्थान से तो 1840 के आसपास ही व्यापारी लोग बरास्ता कोलकाता, रानीगंज, बराकर, चिरकुंडा - झरिया में आकर न केवल बस गये, बल्कि कोयले के अलग भी विभिन्न व्यापारों में सफलतापूर्वक जुट गये। गुजरात से चनचनी-वोरा, ठक्कर, जानी, मेहता, पंजाब से करनानी, थापर, तनेजा, सुंडा एवं कपूर परिवार के लोग झरिया में आकर डट गए। उनलोगों के साथ उनके सगे-संबंधियों की फौज भी थी। इसका नतीजा है कि यदा-कदा कोयला व्यापार में आयी मंदी के बावजूद व्यापारियों की हिम्मत पस्त नहीं हुई, न ही इस शिल्पांचल की आर्थिक रौनक में कभी कमी आयी। यहां इस बात का उल्लेख कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि कोयला का उत्पादक केन्द्र भले ही झरिया क्षेत्र ही रहा हो - व्यापार की बड़ी मंडी कोलकाता ही बनी रही। फलत:, प्राय: सभी व्यापारियों ने अपना एक-एक कार्यालय कलकत्ते में खोल रखा था, यहां तक कि राष्ट्रीयकृत भारतीय कोयला उद्योग (कोल इंडिया) का सरकारी मुख्यालय भी आज  कोलकाता में ही है।

झरिया कोयला क्षेत्र में राष्ट्रीय आंदोलन को निर्देशित करने का मुख्यालय भी कोलकाता ही था। हां, 16 अक्टूबर 1905 को हुए बंग विभाजन के बाद नवगठित बिहार राज्य की राजधानी पटना एक नया सहायक केंद्र बन गया।

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