स्मृति शेष... AK Roy: मुद्दों पर आधारित संघर्ष ने दिलाई राष्ट्रीय स्तर पर पहचान
AK Roy 1977 1980 में और 1989 में धनबाद के सांसद बने। तब से लेकर अबतक राय दा की राजनीतिक यात्रा ऐसी सादगीपूर्ण और निष्कलुष रही कि वे एक जीती जागती किंवदंती बन गए।
धनबाद [ बनखंडी मिश्रा ]। राजनीति में शुचिता और सदाशयता के प्रतीक एके राय अब नहीं रहे। हमने एक ऐसे जननेता को खो दिया है, जिन्होंने न केवल धनबाद, बल्कि दशकों तक अखंड बिहार की राजनीति को दिशा दी। राय साहब के जाने से जो शून्य पैदा हुआ है, उसे भरना तो दूर, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता है। उन्होंने केवल मार्क्सवादी समन्वय समिति की ही स्थापना नहीं की, बल्कि राजनीति के ऐसे आदर्श सिद्धांतों का भी निर्धारण किया, जिसका अवलंबन करना आज के सियासतदां के लिए असंभव सा है।
15 जून 1935 को राजशाही जिले के सपुरा गांव में जन्मे एके राय ने कोलकाता विश्वविद्यालय से 1959 में रसायन अभियंत्रण में एमएससी करने के बाद दो साल तक कोलकाता में काम किया और 1961 में सिंदरी के पीडीआइएल में नौकरी प्राप्त की। यहां उन्हें प्रखर वैज्ञानिक पद्मश्री डॉ. क्षितिज रंजन चक्रवर्ती के संरक्षण में काम करने का मौका मिला। नौकरी के दौरान भी एके राय का आंदोलनकारी मन मस्तिष्क लगातार जरूरतमंदों, पीडि़तों, दबे कुचलों के लिए काम करता रहा। कोयला क्षेत्र के दो जनवादी नेता कॉमरेड सत्यनारायण सिंह और कॉमरेड नागा बाबा ने युवा एके राय का मार्गदर्शन किया था। इससे इनका तेवर और तीक्ष्णतर हो गया। विभिन्न अंग्रेजी अखबारों में प्रकाशित होने वाले इंजीनियर राय के लेखों में व्यवस्था के खिलाफ व्यक्त आक्रोश, उनकी अंतरात्मा की आवाज को मुखरित करता था। राय, नौ अगस्त 1966 को हुए बिहार बंद में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए और नौकरी से भी हाथ धो बैठे। उसके बाद तो उनकी लोकप्रियता और तेजी से बढ़ी। जिस दृढ़ता व रफ्तार से वे काम करने लगे, ऐसा लगा कि उन्हें नौकरी से नहीं, बल्कि जेल से छुटकारा मिला हो। वर्ष 1967 में माकपा के टिकट पर सिंदरी के वे पहले विधायक बने। उसके बाद वर्ष 1969 के मध्यावधि चुनाव में भी जीते। वर्ष 1972 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (एम) से वैचारिक मतभेद की वजह से वे किसान संग्राम समिति के बैनर तले चुनाव लड़े और लगातार तीसरी बार विधायक बने।
तीन-तीन बार विधायक बनने और लगातार जनता के मुद्दों पर संघर्ष करने वाले राय साहब की छवि पूरे धनबाद में एक बड़े नेता की बन गई थी। जनता अब चाह रही थी कि वे धनबाद लोकसभा क्षेत्र का नेतृत्व करें। 1977 के लोस चुनाव की जब अधिसूचना जारी हुई। उस समय एके राय हजारीबाग जेल में बंद थे। हालांकि एक आंदोलनकारी के रूप में जेल उनका दूसरा घर ही था। राय साहब के साथ यह विडंबना जुड़ी रही थी कि उनके पिता (अधिवक्ता शिवेश चंद्र राय) का आजीवन कोर्ट से नाता रहा और पुत्र अरुण का जेल से। जन आंदोलनों के कारण उन्हें अक्सर कारागार में रहना पड़ता था।
वर्ष 1952 में जब एके राय महज 15 वर्ष के थे, तभी एक भाषाई आंदोलन में भड़काऊ भाषण देने के जुर्म में जेल जाना पड़ा था। 1977 में उन्हें जनता पार्टी की तरफ से चुनाव लडऩे का ऑफर मिला था। लेकिन उन्होंने जनता पार्टी के टिकट के बजाय खुद की पार्टी मासस की ओर से चुनाव में उतरने का फैसला लिया। हजारीबाग जेल में बंद राय के चुनाव की कमान धनबाद में विनोद बिहारी महतो, एसके बख्शी, केपी भट्ट, यमुना सहाय, उमाशंकर शुक्ल, राजनंदन सिंह आदि ने संभाली थी। तूफानी चुनाव प्रचार, कांग्रेस के विरोध में हवा और एके राय का धनबाद की राजनीति में बढ़ते कद ने उन्हें शानदार जीत दिला दी थी।
1977 में छठी लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव में धनबाद में कुल 13 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे। इनमें तीन प्रत्याशी को पार्टी का सिंबल मिला था। शेष 10 निर्दलीय की श्रेणी में रखे गए थे। माक्र्सवादी समन्वय समिति की ओर से एके राय, कांग्रेस की ओर से रामनारायण शर्मा और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया की तरफ से गया सिंह ने चुनाव में भाग्य आजमाया था। एके राय को 205495, आरएन शर्मा को 63646 एवं गया सिंह को 17658 वोट प्राप्त हुए थे। उसके बाद राय साहब 1980 में और 1989 में धनबाद के सांसद बने। तब से लेकर अबतक राय दा की राजनीतिक यात्रा ऐसी सादगीपूर्ण और निष्कलुष रही कि वे एक जीती जागती किंवदंती बन गए थे। आजीवन सांसद और विधायक को मिलने वाली पेंशन न लेना, अविवाहित रहना, जनप्रतिनिधि को मिलने वाली सुविधाएं स्वीकार न करना जैसे कठोर फैसले के कारण राय साहब भले ही आजीवन तंगहाली में रहे हों, लेकिन विचारों के धनी तो वे हमेशा बने रहे। कवि रामप्रिय मिश्र (लालधुंआ) के शब्दों में झंडे झुका दो, आज कोई जा रहा है। विजय पथ पर ये चरण के चिह्न छूटे, अग्नि वीणा के पुराने तार टूटे, कर्म की मिजराव पर तीखी चोट देकर, एक अनहद नाद कोई जा रहा है, झंडे झुका दो, आज कोई जा रहा है।