लड़की पर रंग डाला तो करनी पड़ती शादी, जानिए रंगों के त्योहार की रवायतें
धार्मिक दृष्टिकोण से भी होली का महत्व है। वर्षभर में आने वाली त्रि-राशियों में से एक होली की रात्रि भी है जिसमें किए गए सभी धार्मिक अनुष्ठान अक्षुण्ण हो जाते हैं।
धनबाद, आशीष सिंह। कहीं भी घूम लीजिए, आपको विविधता में एकता सिर्फ भारत में ही नजर आएगा। यहां सबसे अधिक धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं। यह भारत की गंगा-जमुनी तहजीब का ही नतीजा है कि सब धर्मों को मानने वाले लोग एक-दूसरे के पर्व त्योहार में शरीक होते हैं। खासकर होली की बात ही निराली है। होली उत्साह का पर्व है। देश के लगभग प्रत्येक भाग में यह त्योहार मनाया जाता है।
पं.गोपाल कृष्ण झा के अनुसार, धार्मिक दृष्टिकोण से भी होली का महत्व है। वर्षभर में आने वाली त्रि-राशियों में से एक होली की रात्रि भी है, जिसमें किए गए सभी धार्मिक अनुष्ठान, मंत्र, जाप, पाठ आदि सिद्ध, अक्षुण्ण हो जाते हैं जिनका फल जीवनपर्यंत कर्ता को प्राप्त होता है। हिंदू धर्म के अलावा विभिन्न समुदाय में भी होली अलग-अलग रूपों में मनाई जाती है। कोयलांचल में भी गुजराती, मारवाड़ी, सिख, बंगाली समुदाय में होली के ढेरों रंग देखने को मिलता है।
सिख समाज : सिखों में होली के बाद होला मोहल्ला मनाने की परंपरा है। बैंक मोड़ गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के उपाध्यक्ष गुरजीत सिंह बताते हैं कि मुगल शासन में हिन्दुओं पर जब अत्याचार हो रहा था, उस समय सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंहजी ने उनसे लोहा लेने के लिए 1699 में वैशाखी पर्व पर खालसा पंथ की स्थापना की थी। उनकी 14 बार मुगलों से जंग हुई। गुरु गोबिंद सिंह ने सिपाहियों की ही नहीं, अपने परिवार तक की कुर्बानी दे दी। अंतत: वे मुगलों से जंग जीते। इस जीत की खुशी में पहली बार आनंदपुर साहिब में होली के बाद होला मोहल्ला मनाया गया। यह परंपरा सिख समाज में आज भी जारी है। समाज के लोग होला मोहल्ला का आयोजन कर हर वर्ष अपने गुरु की वीरता और त्याग को याद कर उनके बताए मार्ग पर चलने का संकल्प लेते हैं। कोयलांचल के पुराने गुरुद्वारा में एक डुमरी तीन नंबर गुरुद्वारा में भी होला मोहल्ला मनाया जाएगा। गुरुद्वारा के ग्रंथी सुखदेव सिंह ने बताया कि होला मोहल्ला में झरिया व धनबाद तक के लोग शामिल होते हैं।
मारवाड़ी समाज : मारवाड़ी युवा मंच शक्ति शाखा की अध्यक्ष बताती हैं कि मारवाड़ी समाज में भी होलिका दहन से होली की शुरुआत होती है। महिलाएं सप्ताह भर पहले से इसकी तैयारी करती हैं। गोबर का बरकुल्ला बनाया जाता है। गोबर से ही होलिका बनाते हैं, जिसमें कौड़ी की आंख बनाई जाती है। भक्त प्रहलाद के प्रतीक के रूप में एक पेड़ लगाते हैं। होलिका दहन के दिन बरकुल्ला को जलाया जाता है, इसमें चना और गेहूं की बाली सेंकी जाती है। होलिका दहन के बाद राख से कौड़ी चुनने की परंपरा है। घर के सभी सदस्य होलिका दहन में शामिल होते हैं। पौराणिक प्रथा के अनुसार पूजा-पाठ की जाती है। शादी के बाद युवतियां पहली होली मायके में मनाती है और होलिका दहन में शामिल होती है। पंद्रह दिनों तक लड़की मायके में रहती है। दूसरे दिन रंग-अबीर की होली होती है।
गुजराती समाज : अखिल भारतीय गुजराती समाज के अध्यक्ष परेश चौहान कहते हैं कि गुजराती समाज में होलिका दहन के लिए तीन-चार फीट का गड्ढा बनाकर उसमें सात घड़ों में चना व धान रखकर मिट्टी से ढक दिया जाता है। उपर गोइठा रखकर होलिका दहन किया जाता है। होलिका के चारों ओर नई वधु व नवजात का प्रदक्षिणा कराया जाता है। होलिका के सात-आठ फेरे लगाए जाते हैं। फेरे लगाते हुए ज्वार (धानी) को होलिका के चारों ओर गिराया जाता है। होलिका दहन के बाद चना धान को घड़ों को बाहर निकाला जाता है, जिसे लोग प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। दूसरे दिन सुबह रंगों की होली और शाम में अबीर खेला जाता है।
आदिवासी मनाते हैं इको फ्रेंडली होलीः झारखंड के आदिवासी इको फ्रेंडली होली मनाते हैं। इसमें न रंगों का इस्तेमाल होता है न ही केमिकल्स का। शुद्ध व सादे पानी से होली खेली जाती है। प्रकृति के पुजारी माने जाने वाले आदिवासियों की परंपरा में ही पर्यावरण संरक्षण के सूत्र शामिल हैं। हर साल बाहा पर्व के अवसर पर पानी की होली होती है। बाहा पर्व के दूसरे दिन एक दूसरे पर पानी डाल संताल आदिवासी खुशियां मनाते हैं। आदिवासी अपनी हर जरूरत प्रकृति से पूरी करते हैं इसलिए पूजा भी प्रकृति की ही की जाती है और होली भी प्राकृतिक तौर-तरीके से पानी से खेली जाती है। रंग जैसे कृत्रिम उत्पाद से आदिवासी अब भी दूर हैं। बाहा पर वैसे तो आदिवासी समुदाय के लोग सादे पानी से एक दूसरे को भिगोते हैं, लेकिन इसके भी कई नियम हैं। मसलन, पानी रिश्ते के आधार पर ही एक दूसरे को डाला जा सकता है। जिस रिश्ते में मजाक चलता है, पानी की होली उसी के साथ खेली जा सकती है। मसलन, जीजा-साली के बीच। भाई-बहन, चाचा-भतीजा जैसे रिश्ते में एक दूसरे को पानी नहीं डाला जा सकता है।
संतालः संताल आदिवासियों में पती-पत्नी के अलावा और किसी के साथ रंग-व्यवहार करने की अनुमति नहीं है। ऐसा करना सामाजिक व्यवस्था में दंडनीय अपराध है। अगर किसी पुरुष ने किसी लड़की को भूलवश भी लाल रंग से रंग दिया और समाज के लोगों ने ऐसा करते देख लिया तो रंग डालने वाले पुरुष को दंड दिया जाता है। लड़की को रंग डालने को संताल आदिवासी जबरन उसकी मांग भरने के समान मानते हैं। ऐसी घटना के बाद आम तौर पर माझी-मोड़े (पंच) की बैठक होती है और लड़की को पूछा जाता है कि क्या वह उस पुरुष को पति के रूप में स्वीकार करेगी। अगर लड़की ने हां कहा तो रंग डालने वाले पुरुष से उसका विवाह कर दिया जाता है, फिर पुरुष चाहे या न चाहे, लेकिन अगर लड़की ने विवाह से मना कर दिया तो रंग डालने वाले पुरुष को पूरे गांव को भोज व आर्थिक दंड (संताल में डांडोम कहते हैं) तो देना ही पड़ता है। साथ ही लड़की को उसकी मांग के अनुरूप हर्जाना भी देना होता है।