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Dhanbad: हर एक मनुष्य को शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में विकसित होने का अधिकार

अगर व्यक्ति का लक्ष्य समान है तो उनके बीच एकता लाना संभव है। आध्यात्मिक भावधारा का सृजन कर विश्व बंधुत्व के आधार पर एक मानव समाज की स्थापना को वास्तविक रूप दिया जाना संभव है। सबको एक साथ लेकर चलने में ही समाज की सार्थकता।

By Atul SinghEdited By: Published: Mon, 16 May 2022 04:20 PM (IST)Updated: Mon, 16 May 2022 04:20 PM (IST)
Dhanbad:  हर एक मनुष्य को शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में विकसित होने का अधिकार
अगर व्यक्ति का लक्ष्य समान है तो उनके बीच एकता लाना संभव है।

जागरण संवाददाता, धनबाद : अगर व्यक्ति का लक्ष्य समान है तो उनके बीच एकता लाना संभव है। आध्यात्मिक भावधारा का सृजन कर विश्व बंधुत्व के आधार पर एक मानव समाज की स्थापना को वास्तविक रूप दिया जाना संभव है। सबको एक साथ लेकर चलने में ही समाज की सार्थकता। आनंद मार्ग के संस्थापक श्रीश्री आनंदमूर्ति के यही बोल थे। आज उनकी जयंती है। आनंदमूर्ति का जन्म 1921 में बिहार के जमालपुर में एक साधारण परिवार में हुआ था। परिवार का दायित्व निभाते हुए वे सामाजिक समस्याओं के कारण का विश्लेषण उनके निदान ढूंढने एवं लोगों को योग, साधना आदि की शिक्षा देने में अपना समय देने लगे।

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1955 में उन्होंने आनंद मार्ग प्रचारक संघ की स्थापना की। आनंदमूर्ति ने समझा कि जिस जीवन मूल्य (भौतिकवाद) को वर्तमान मानव अपना रहे हैं। जो न शारीरिक व मानसिक और न ही आत्मिक विकास के लिए उपयुक्त है। इसलिए उन्होंने ऐसे समाज की स्थापना का संकल्प लिया, जिसमें हर व्यक्ति को अपना सर्वांगीण विकास करते हुए अपने मानवीय मूल्य को ऊपर उठने का सुयोग प्राप्त हो। उन्होंने कहा कि हर एक मनुष्य को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में विकसित होने का अधिकार है और समाज का कर्तव्य है कि इस अधिकार को ठीक से स्वीकृति दें। कहते थे कि कोई भी घृणा योग्य नहीं, किसी को शैतान नहीं कह सकते। मनुष्य तब शैतान या पापी बनता है जब उपयुक्त परिचालन पथ निर्देशन का अभाव होता है और वह अपनी कुप्रवृतियों के कारण बुरा काम कर बैठता है।

यदि उनकी इन कुप्रवृतियों को सप्रवृतियों की ओर ले जाया जाए तो वह शैतान नहीं रह जाएगा। हर एक मनुष्य देव शिशु है। इस तत्व को मन में रखकर समाज की हर कर्म पद्धति पर विचार करना उचित होगा। अपराध संहिता या दंड संहिता के विषय में उन्होंने कहा कि मनुष्य को दंड नहीं बल्कि उनका संशोधन करना होगा। उनका कहना था कि सबको एक साथ लेकर चलने में ही समाज की सार्थकता है। यदि कोई यात्रा पथ में पिछड़ जाए, गंभीर रात की अंधियारी में जब तेज हवा का झोंका उसका दीप बुझा दे तो उसे अंधेरे में अकेले छोड़ देने से तो नहीं चलेगा। उसे हाथ पकड़कर उठाना होगा। अपने प्रदीप की रोशनी से उसे दीपशिखा को ज्योति करना होगा। अगर कोई अति घृणित कार्य किया है तो उसका दंड उसे अवश्य मिलेगा पर उससे घृणा करके उसे भूखे रखकर मार डालना मानवता विरोधी कार्य होगा।

उनके विचारानुसार हर व्यक्ति का लक्ष्य एक ही है। सभी एक ही लक्ष्य पर पहुंचना चाहते हैं। अपनी सूझ एवं समझदारी एवं परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग रास्ता अपनाते हैं। कोई धनोपार्जन, कोई सेवा का पथ अपनाते हैं, लेकिन हर प्रयास के पीछे मौलिक प्रेरणा एक ही रहती है,शाश्वत शांति की प्राप्ति, पूर्णत्व की प्राप्ति, अगर व्यक्ति का लक्ष्य समान है तो उनके बीच एकता लाना संभव है। आध्यात्मिक भावधारा का सृजन कर विश्व बंधुत्व के आधार पर एक मानव समाज की स्थापना को वास्तविक रूप दिया जाना संभव है।

उन्होंने देखा मानव भिन्न-भिन्न प्रकार कुठांओं ग्रसित है। जिस कारण वह अपना तथा जगत के भिन्न जीवों के बीच सही संबंध को समझ पाने में सफल नहीं हो रहा है। इस तरह की कुंठा मानव समाज को भिन्न-भिन्न प्रकार परस्पर विरोधी गुटों में विभाजित कर रही है। विरोध के कारण समाज को काफी नुकसान हो रहा है। यद्यपि एक और वृहद मानवधारा है, जिसे मानवतावाद कहते हैं, लेकिन मानवता नाम पर जो कुछ हो रहा है, वहां भी भू-भाव एवं जाति, मजहब भाव प्रवणता ही छुपे रूप में प्रबल है। मानवता की इसी कमी को दूर करने के उद्देश्य से श्रीश्री आनंदमूर्ति ने समाज संबंधी वर्तमान धारणा को वृहत कर पशु-पक्षी, पेड-पौधे को भी भाई-बहन के रूप में समान समाज के रूप में देखा। जिसे नव्य मानवता वाद कहते हैं। मानवता वाद ही चरम आर्दश नहीं है। मनुष्य के अलावा पृथ्वी पर अन्य जीव भी हैं।

- जैसा आनंद मार्ग प्रचारक संघ धनबाद के सुनील आनंद ने बताया।


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