Jharkhand Assembly Election 2019: अभी नहीं तो कभी नहीं की तर्ज पर जोर लगा रहे कांग्रेसी, टिकट के लिए कैटफाइट भी
कांग्रेस झरिया में 1977 के विधानसभा चुनाव में हारी तो उसके बाद कभी नहीं जीती। इसके बाद सूरजदेव सिंह के परिवार का ही झरिया विधानसभा क्षेत्र में बोलबाला है।
धनबाद [ रोहित कर्ण ]। विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही जिले में टिकट की दावेदारी को लेकर नेताओं की भागमभाग बढ़ गई है। भाजपा और कांग्रेस में यह सर्वाधिक है। हालांकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी कीर्ति आजाद औंधे मुंह गिरे लेकिन इससे पार्टी के नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ा है। वे यह सोचकर खुश हैं कि कांग्रेस को पिछले चुनाव के मुकाबले अधिक वोट मिला। एक दावा यह भी है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव की प्रकृति अलग-अलग होती है। लिहाजा विधानसभा चुनाव के लिए सभी नेता खम ठोंक कर तैयार हैं। सर्वाधिक मारा मारी झरिया विधानसभा को लेकर है। दावेदारों का मानना है कि झरिया से अभी नहीं तो कभी नहीं।
झरिया विधानसभा क्षेत्र में न सिर्फ पार्टी के कई हैवीवेट नेता टिकट के दावेदार हैं बल्कि महागठबंधन में भी यह सीट कांग्रेस को मिलना लगभग तय है। दावेदारों का मानना है कि यदि पार्टी ने सही उम्मीदवार दिया तो इस बार कांग्रेस के लिए यह सीट जिले में सबसे आसान साबित होगी।
क्यों है झरिया से कांग्रेस को उम्मीदः पिछली बार कांग्रेस प्रत्याशी नीरज सिंह ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी थी। इस बार कांग्रेस के लिए प्लस प्वाइंट यह है कि यहां के भाजपा विधायक संजीव सिंह लंबे समय से अपने चचेरे भाई व प्रतिद्वंद्वी रहे नीरज सिंह की हत्या मामले में जेल में बंद हैं। उनकी पत्नी रागिनी सिंह भाजपा के टिकट के लिए सक्रिय हैं और राजनीति में नई हैं। कांग्रेस नेताओं को उम्मीद है कि वे पिछली बार की तरह वोटरों को गोलबंद नहीं कर सकेंगी
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लोकसभा चुनाव परिणाम ने भी बंधाई आसः लोकसभा चुनाव के दौरान सिंह मैंशन के सिद्धार्थ गौतम ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर भाग्य आजमाया था। वे 10 हजार वोट भी नहीं ला पाए। इससे कांग्रेसियों की उम्मीद और परवान चढ़ गई है। दूसरी तरफ नीरज सिंह की हत्या की सहानुभूति भी कांग्रेस को मिलने की संभावना है। इसी सहानुभूति लहर की आस में नीरज सिंह की पत्नी पूर्णिमा सिंह लगातार क्षेत्र में सक्रिय हैं।
1977 के बाद नहीं जीती कांग्रेस : कांग्रेस झरिया से 1977 के विधानसभा चुनाव के बाद कभी नहीं जीती। 1977 में जनता पार्टी उम्मीदवार के तौर पर सूर्यदेव सिंह ने अपना परचम लहराया तो उसके बाद चार दशक तक उनके परिवार के लोग ही इस सीट से जीतते रहे हैं। सूर्यदेव सिंह के बाद उनके भाई बच्चा सिंह, पत्नी कुंती सिंह और पुत्र संजीव सिंह झरिया के विधायक बने। बीच में एक बार आबो देवी यहां से राजद के टिकट पर चुनाव जीती थीं। उन्हें बिहार सरकार में राज्यमंत्री भी बनाया गया था। कांग्रेस को उम्मीद है कि इस बार उसे एंटी इंकंबेंसी का लाभ भी यहां से मिल सकता है।
दावेदारी से लिए सिर फुटौव्वल भी शुरू : झरिया सीट से टिकट अभ्यर्थियों के बीच दावेदारी इस कदर है कि अब यह हिंसक रूप भी लेने लगा है। दो दिन पूर्व ही जामताड़ा में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश सिंह बघेल की सभा में भी यह देखने को मिला जब संतोष सिंह और हर्ष सिंह आमने सामने हो गए। बघेल के मंच पर चढऩे के दौरान दोनों नेताओं में भिड़ंत हुई और मामला पुलिस तक पहुंची। संतोष सिंह ने पुलिस को लिखित शिकायत की कि हर्ष सिंह ने उन्हें धमकाया है। उन्होंने एसपी से मिलकर भी इसकी शिकायत की। हर्ष सिंह नीरज सिंह की पत्नी पूर्णिमा सिंह के समर्थन में लाबिंग कर रहे हैं।
सबके अपने-अपने दावे : झरिया से टिकट के लिए सबके अपने-अपने दावे हैं। पूर्णिमा सिंह जहां जमसं (बच्चा गुट) के व्यापक जनाधार और नीरज सिंह की सहानुभूति लहर के बल पर मैदान में हैं वहीं संतोष सिंह का मानना है कि वे पार्टी के दिग्गज और पुराने नेता हैं। झरिया में उनका जनाधार है। बकौल संतोष उन्हें आबो देवी व उनके पुत्र अवधेश यादव का भी समर्थन प्राप्त है। यदि उन्हें टिकट न मिला तो राजद यहां से प्रत्याशी दे सकता है। इन दोनों के बीच युवा कांग्रेस जिलाध्यक्ष रहे शमशेर आलम और मुख्तार खान भी अल्पसंख्यकों के व्यापक वोट के भरोसे टिकट का दावा कर रहे हैं। शमशेर आलम मेयर के प्रत्याशी भी थे और उन्हें 50 हजार के लगभग वोट प्राप्त हुआ था।