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आधी आबादी का हुनर फूंक रहा बांस में जान, बेचने के लिए प्रदर्शनी में लगातीं स्टॉल

इन महिलाओं ने अपनी मेहनत से बांस में नई जान फूंक दी है। बांस से कान की बाली से लेकर टोकरी तक बनाती हैं।

By Sachin MishraEdited By: Published: Tue, 06 Nov 2018 06:18 PM (IST)Updated: Wed, 07 Nov 2018 08:10 AM (IST)
आधी आबादी का हुनर फूंक रहा बांस में जान, बेचने के लिए प्रदर्शनी में लगातीं स्टॉल

देवघर, कंचन सौरभ मिश्रा। झारखंड के देवघर जिले के शिमला गांव की महिलाएं न सिर्फ घर संभालती हैं, बल्कि अपनी मेहनत व हुनर से परिवार को आर्थिक संबल दे रही हैं। जिले के पालोजोरी प्रखंड की मटियारा पंचायत के आदिवासी बहुल इस गांव की 118 महिलाएं आठ सखी मंडल से जुड़कर बांस में जान डालती हैं। नायाब सामग्रियां बनाती हैं, जो देश के कई शहरों में पहुंचती हैं। प्रत्येक महिला 75 से 80 हजार रुपये तक सालाना कमाई कर लेती है। आलम यह है कि इस गांव के पुरुष आज घर की महिलाओं के सहयोगी की भूमिका में हैं।

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यहां की महिलाओं ने 2007 में समूह बनाना शुरू किया था। शुरुआत में परिवार और समाज का विरोध भी सहा पर हार नहीं मानी। 11 वर्ष में एक मुकाम हासिल कर लिया। महिलाएं शुरू में बांस के कुछ ही सामान बनाती थीं। काम में मन रमा तो दुमका में विशेष प्रशिक्षण लिया। इससे इनका हुनर और निखरा। यहां के अधिकांश घरों में टीवी और वाहन जैसी सुविधाएं हैं। बच्चों को शिक्षित करने में सभी गंभीर हैं। पहले यहां की महिलाएं प्रखंड मुख्यालय तक नहीं जा पाती थीं।

आज वे देवघर, दुमका, रांची, धनबाद, कोलकाता व दिल्ली तक का सफर तय कर चुकी हैं। गांव की महिलाएं समय-समय पर विभिन्न प्रदर्शनियों में जाकर बांस की सामग्रियों के स्टॉल लगाती हैं। अपने प्रोडक्ट का प्रमोशन करती हैं। शहरों में भी जाकर बांस का सामान बेचती हैं। गांव की संजू कुमारी, अकनी मोहलीन, जमनी मोहलीन, मुन्नी कुमारी व कलबतिया देवी ने बताया कि इस काम से जिंदगी बदल गई। शुद्ध हिंदी व बीच-बीच में अंग्रेजी के शब्द का सटीक इस्तेमाल करते इन्हें देख यह कतई नहीं लगता कि ये किसी गांव की आदिवासी महिलाएं हैं।

बांस में फूंकती हैं जान

इन महिलाओं ने अपनी मेहनत से बांस में नई जान फूंक दी है। बांस से कान की बाली से लेकर टोकरी तक बनाती हैं। बांस के रंगीन फैंसी डब्बे, कलम व चश्मा रखने का स्टैंड, बाल की क्लिप, चूड़ी, गुलदस्ता, पर्स, बैग, फोटो फ्रेम, रंगीन चटाई, पूजा के लिए आसनी, डाली व सूप जैसी अनेक वस्तुएं बनाती हैं। बांस गांव के पुरुष लाते हैं और उनको आकार महिलाएं देती हैं। इनका कहना है कि सरकार हमारी मदद कर बाजार उपलब्ध कराए तो और फायदा हो सकता है। हालांकि स्वयंसेवी संस्था नीड्स के कार्यकर्ता इनको कुछ सहयोग करते हैं।

'गांव की महिलाओं का जीवन पहले से बेहतर हुआ है। सभी काम करना चाहती हैं। हालांकि सही बाजार नहीं मिलने से कम काम व कमाई हो पाती है। सरकार के सहयोग से उत्पाद को बाजार में बेचने की व्यवस्था हो जाए तो बेहतर होगा।'

-सनमनी मोहलीन, अध्यक्ष, बजरंगबली सखी मंडल।


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