प्राचीन काल से चली आ रही कांवर लाने की प्रथा
देवघर : कांवर में जल भरने की प्रथा वैदिक साहित्य में नहीं है, लेकिन देवताओं को जल चढ़ाने
देवघर : कांवर में जल भरने की प्रथा वैदिक साहित्य में नहीं है, लेकिन देवताओं को जल चढ़ाने का प्रसंग जरूर आया है। रामायण में श्रवण कुमार द्वारा कांवर में अपने माता-पिता को बैठाकर तीर्थाटन कराने का वर्णन है। प्राचीन काल में भी कांवर प्रथा का जिक्र मिलता है। रामायण में अनेक ऐसे प्रसंग है जहां इन बातों की चर्चा है। धार्मिक दृष्टि से कांवर यात्रा काफी महत्वपूर्ण है। शिव की पूजा वैदिक काल से ही चली आ रही है। श्रावण मास में शिवभक्ति की अनूठी अनुभूति जैसे बाबाधाम में मिलती है, उतना शायद ही विश्व के किसी और कोने में देखने को मिले।
द्वादश ज्योर्ति¨लग में सर्वश्रेष्ठ बैद्यनाथधाम स्थित कामना¨लग एक शक्तिपीठ भी है। बाबा के दरबार से कोई भी शिवभक्त खाली हाथ नहीं लौटता। सुल्तानगंज से जल भरकर कांवर के साथ शिवभक्त बाबा दरबार पहुंचते हैं। भगवान भोले के जटा से खुद मां गंगा प्रवाहित होती है। लेकिन यह भक्तों की अपने महादेव के प्रति आस्था और श्रद्धा है कि वे गंगा और शिव को एकाकार करने में जुटे रहते हैं। मेला में हर दिन कांवरियों की भीड़ उमड़ रही है। बीच-बीच में बारिश के फुहार भी कांवरियों की मदद कर रहे हैं। मानों फूलों की जगह बारिश की बूंदों से इंद्र देवता कांवरियों का इस पावन नगरी में स्वागत कर रहे हैं।
अमूमन सोमवार को ज्यादा भीड़ देखने को मिली है। बस बाबा के नाम के सहारे कांवरिया अपनी यात्रा तय कर कामना¨लग पर जलार्पण करते हैं। जब वह जलार्पण कर मंदिर प्रांगण में खड़े होकर पंचशूल को निहारते हैं तो उनकी आंखें नम हो जाती है। वह मंदिर के शिखर को अपलक निहारते रहते हैं। जब तक उनके मन की बात पूरी नहीं हो जाती तक वह अपने दोनों हाथ उठाए रहते हैं। आस्था व विश्वास एक साथ शिव की विनती में उठे हाथ बताता है। महिलाएं अपने आंचल में सदा सुहागन रहने का मनोरथ मांगती है, परिवार की खुशहाली मांगकर वह सुखी जीवन की कामना करती है। धूप-दीप जलाकर शिव को मनाने का बारंबार प्रयास करती है। आरती पूरी होती ही अपने पुरोहित से आर्शीवाद लेकर अपने गंतव्य को विदा हो जाती हैं। यह कहते हुए कि बाबा स्वस्थ रखिएगा अगले साल फिर कांवर लेकर आएंगे।