सरहुल आदिवासियों के प्रकृति प्रेम का प्रतीक
बोकारो : आदिवासियों की प्रकृति प्रेम के प्रतीक के रुप में सरहुल पर्व पूरे राज्य में मनाया जाता है। यह आदिवासी समुदाय का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। चूंकि यह पर्व रबी की फसल कटने के साथ ही आरंभ होता है। इसलिए इसे नए वर्ष के आगमन के रुप में भी मनाया जाता है। हर वर्ष चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को चांद दिखाई पड़ने के साथ ही सरहुल का आगाज एवं पूर्णिमा के दिन इसका अंत होता है।
विशेष तौर पर होती सखुआ वृक्ष की पूजा
इस पर्व में साल व सखुआ वृक्ष की विशेष तौर पर पूजा की जाती है। दरअसल यह भारत में प्रकृति एवं वृक्षों की पूजा की पुरानी परम्परा का ही हिस्सा है। ऋतुराज बसंत के आगमन के साथ ही सारा आदिवासी समुदाय पर्व की प्रतीक्षा करने लगता है।
अलग-अलग नाम से मनाया जाता पर्व
सरहुल पर्व को झारखंड की विभिन्न जनजातियां अलग-अलग नाम से मनाती हैं। उरांव जनजाति इसे खुदी पर्व, संथाल बाहा पर्व, मुंडा बा पर्व और खड़िया जनजाति जंकौर पर्व के नाम से मनाते हैं।
धरती व सूर्य के संबंध से ही हरियाली
कई दिनों तक चलने वाला यह पर्व इस बात की याद दिलाता है कि धरती और सूर्य के संबंध से ही प्रकृति में हरियाली आती है। सरहुल पूजा आरंभ होने से पूर्व पाहन या पुजारी और पहनाइन या पुजारिन को उपवास करना होता है। वे सुबह पूजा करते हैं। पाहन घर-घर जाकर जल और फूल वितरित करते हैं। वे महिलाओं के सिर पर पानी छिड़कते हैं। ऐसा माना जाता है कि महिलाओं पर ही घर का भाग्य निर्भर करता है। पाहन बरसो कह कर महिलाओं के सिर पर पानी छिड़कते हैं, ऐसा कर वह संतान प्राप्ति के लिए महिलाओं को शुभकामनाएं देते हैं। फूल वितरण कर पाहन यह कहते हैं कि फूल खिल गए हैं। इसलिए फल की प्राप्ति निश्चित है। हर्ष के इस त्योहार में गांव के सभी आदिवासी जन इकटठा होकर मांदर की थाप पर नृत्य करते हैं। इस दौरान हड़िया और मुर्गे के मांस का सेवन किया जाता है। सरहुल में सरना या पूजा स्थल के पास आम जन सामूहिक पूजा करते हैं। इस पूजा में सखुआ का फूल, सिंदूर, जल व दूब चढ़ाया जाता है। पूजा समाप्ति के बाद पाहन सखुआ के फूल को ही प्रसाद के रुप में श्रद्धालुओं के बीच वितरित करते हैं।
प्रेम व भाईचारे को बढ़ावा देता सरहुल : उपायुक्त
बोकारो: सरहुल प्रकृति पर्व है। यह आपसी प्रेम व भाईचारे को बढ़ावा देता है। साथ ही यह हमें जल, जंगल व जमीन की रक्षा की सीख देता है। ये बातें मुख्य अतिथि उपायुक्त सुनील कुमार ने सरहुल महोत्सव में कही। उपायुक्त आदिवासी सांस्कृतिक विकास परिषद की ओर से दिशोम जाहेर गढ़ में आयोजित सरहुल महोत्सव को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि झारखंड की संस्कृति प्रकृति से जुड़ी है। यहां के सभी पर्व त्योहार में प्रकृति की पूजा-अर्चना की जाती है। सरहुल महोत्सव की शुरूआत जाहेर बोंगा की पूजा-अर्चना के साथ की गई। तत्पश्चात नायके बाबा ने प्रसाद वितरण और लोगों के बीच साल व सखुआ फूल का वितरण किया। तत्पश्चात संगीत नृत्य का आयोजन किया गया। इस अवसर पर सम्मानित अतिथि बीएसएल के महाप्रबंधक शंकर चौधुरी, फ्रांसीस सरवन, खिरोधर मुर्मू, बुधन हेम्ब्रम, मुरली मांझी, काली चरण टुडू, रघुनाथ टुडू, मुरली चांद हेम्ब्रम, विनोद बिहारी सोरेन, गोपेश्वर सोरेन,महेन्द्र किस्कू सहित बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग उपस्थित थे। इधर जय सरना समाज की ओर से बालीडीह में सरहुल मनाया गया। लोगों ने जुलूस निकाला। जुलूस में लोग नगाड़े की धुन पर नृत्य कर रहे थे। इस अवसर पर एन हेम्ब्रम, भाजपा जिलाध्यक्ष रोहित लाल सिंह, झामुमो के बोकारो नगर अध्यक्ष मंटू यादव, जय झारखंड मजदूर समाज के महामंत्री बीके चौधरी, शांति सोरेन, चन्द्र कुमार सिंह मुंडा, छोटू उरांव, मेघा मुंडा, देवराज मुंडा आदि उपस्थित थे। वहीं सेक्टर 8 सरना स्थल से आदिवासियों का जुलूस निकला। जिसमें आजसू नेता सुधीर सिंह सहित अन्य शामिल थे।
चास में मना सरहुल
चास स्थित कृषि विभाग परिसर में ग्रामीण क्षेत्र के प्रकृति पूजकों ने सरहुल पर्व मनाया। यहां पेड़-पौधों की पूजा-अर्चना की गई। यहां श्रद्धालुओं ने कहा कि सरहुल उत्सव प्रकृति एवं पर्यावरण की सुरक्षा के रूप में मनाना चाहिए। सरहुल उत्सव को संकल्प दिवस के रूप में मनाते हुए वक्ताओं ने कहा कि आज पूरे प्रदेश में औद्योगिकीकरण के कारण प्राकृतिक आपदा एवं अनावृष्टि हो रही है। प्रतिदिन यहां जंगल-झाड़, पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति को एक पेड़ अवश्य लगाना चाहिए। बांधगोड़ा साइड के बी ब्लाक काकवाटांड़ में गाजे-बाजे के साथ सरहुल पर्व मनाया गया। इस मौके पर छोटन हेम्ब्रम, सुरेन्द्र हांसदा, धीरज सोरेन, हेमंत बेसरा आदि उपस्थित थे।
दिशोम बाहा सरना समिति ने मनाया सरहुल
पेटरवार,संस : दिशोम बाहा सरना समिति ने पेटरवार में सरहुल महोत्सव धूमधाम से मनाया। समिति के सदस्यों ने एक दूसरे को सखुआ फूल देकर बधाई दी।
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