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अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को रिहा करने का आदेश

राज्य ब्यूरो श्रीनगर राज्य उच्च न्यायालय ने 37वीं बार जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत बंदी बनाए गए कट्टरपंथी अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को रिहा करने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि अगर वह किसी अन्य मामले में वांछित नहीं है तो उसे तत्काल प्रभाव से रिहा किया जाए।

By JagranEdited By: Published: Wed, 22 May 2019 08:08 AM (IST)Updated: Thu, 23 May 2019 06:35 AM (IST)
अलगाववादी नेता मसर्रत आलम  को रिहा करने का आदेश
अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को रिहा करने का आदेश

राज्य ब्यूरो, श्रीनगर : राज्य उच्च न्यायालय ने 37वीं बार जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत बंदी बनाए गए कट्टरपंथी अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को रिहा करने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि अगर वह किसी अन्य मामले में वांछित नहीं है तो उसे तत्काल प्रभाव से रिहा किया जाए।

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उच्च न्यायालय में जस्टिस राशिद अली डार की खंडपीठ ने मंगलवार को मसर्रत आलम पर लगाए गए पीएसए के खिलाफ याचिका की सुनवाई की। कश्मीर बार एसोसिएशन के चेयरमैन एडवोकेट मियां क्यूम ने मसर्रत के मामले की पैरवी करते हुए कहा कि उस पर पीएसए लगाया जाना अनुचित है। इसमें औपचारिकताओं को पूरा नहीं किया गया है। मसर्रत को अदालत द्वारा बार-बार रिहा करने के बावजूद पुलिस अलग-अलग मामले बनाकर उसे हिरासत में ले लेती है और फिर नए सिरे से पीएसए लागू कर दिया जाता है।

गौरतलब है कि मसर्रत आलम ने वर्ष 2008 और 2010 के दौरान कश्मीर में हुए हिसक प्रदर्शनों में अहम भूमिका निभाई थी। मसर्रत को अक्टूबर 2010 में पुलिस ने श्रीनगर के बाहरी क्षेत्र हारवन निशात में उसके एक रिश्तेदार के घर से पकड़ा था। कट्टरपंथी सैयद अली शाह गिलानी के करीबियों में शामिल मसर्रत को वर्ष 2015 में तत्कालीन पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार ने रिहा किया था, लेकिन अप्रैल 2015 के दौरान देश विरोधी रैली आयोजित करने, पाकिस्तानी झंडा लहराने और लश्कर-ए-तैयबा के हक में नारेबाजी करने पर प्रशासन ने उसे फिर से गिरफ्तार कर पीएसए के तहत जेल भेज दिया था।

मसर्रत आलम पर 37वां पीएसए गत 13 नवंबर 2018 को तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट बारामुला ने एसएसपी बारामुला की ओर से उपलब्ध कराए गए डोजियर व अन्य दस्तावेजों के आधार पर लगाया था। मसर्रत ने अपने ऊपर लगे पीएसए को एडवोकेट मियां कयूम के माध्यम से चुनौती दी थी।

अदालत ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 (5) और जम्मू कश्मीर पीएसएस की धारा 13 का हवाला देते हुए कहा कि यह दोनों संवैधानिक प्रावधान बंदी के दो अधिकारों को सुनिश्चित बनाते हैं। पहला- यह कि बंदी को बताया जाए कि उसे किस आधार पर बंदी बनाया जा रहा है। दूसरा-बंदी को बंदी बनाए जाने के आदेश के तुरंत बाद या संबंधित आदेश पर अमल के तुरंत बाद अपने ऊपर लगाए गए पीएसए को चुनौती देने का पूरा अधिकार है। अदालत ने कहा कि इन संवैधानिक प्रावधानों का तभी फायदा है जब बंदी बनाए गए व्यक्ति को उसे बंदी बनाए जाने के आधार संबंधी दस्तावेज तुरंत उपलब्ध कराए जाएं। उसे यकीन दिलाया जाए कि समाज व जनता की सुरक्षा के लिए उसे बंदी बनाना जरूरी है।

अदालत ने कहा कि बंदी बनाने वाली संस्था को ध्यान रखना चाहिए कि वह बिना आधार किसी को भी बंदी न बनाए और जिस आधार और साक्ष्य के सहारे किसी को बंदी बनाया जा रहा है, वह भ्रामक होने के बजाय स्पष्ट और ठोस हो।


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