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पंडितों के लिए अपनों से मिलने का जरिया है क्षीर भवानी मेला

मां क्षीर भवानी का मेला सिर्फ मेला न होकर मिलन स्थली है अपनी जड़ों से जुड़ने अपनी साझा विरासत को फिर से मजबूत बनाने का जरिया है। कई लोगों के लिए यह मेला उनके घर में चूल्हा जलाने का जरिया है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 28 May 2020 09:33 AM (IST)Updated: Thu, 28 May 2020 09:33 AM (IST)
पंडितों के लिए अपनों से मिलने का जरिया है क्षीर भवानी मेला
पंडितों के लिए अपनों से मिलने का जरिया है क्षीर भवानी मेला

राज्य ब्यूरो, श्रीनगर : मां क्षीर भवानी का मेला सिर्फ मेला न होकर मिलन स्थली है, अपनी जड़ों से जुड़ने, अपनी साझा विरासत को फिर से मजबूत बनाने का जरिया है। कई लोगों के लिए यह मेला उनके घर में चूल्हा जलाने का जरिया है। कोरोना के संक्रमण के खतरे को देखते हुए इस बार यह मेला रद कर दिया गया है। इससे कश्मीर के कई लोग मायूस भी हैं क्योंकि इस बार उन्हें अपने पुराने दोस्तों, पड़ोसियों से मिलने का मौका नहीं मिलेगा।

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इस साल यह मेला 30 मई को है। ज्येष्ठ अष्टमी के दिन माता क्षीर भवानी की वार्षिक पूजा होती है। माता क्षीर भवानी जिन्हें मां राघेन्या भी कहते हैं, कश्मीर और कश्मीरी पंडित समुदाय की आराध्य देवी हैं। कश्मीरी पंडित देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों से इस मेले में भाग लेने के लिए तुलमुला गांदरबल आते हैं। आतंकवाद के कारण जब कश्मीरी पंडितों को वादी में सामूहिक पलायन करना पड़ा तो करीब तीन वर्ष तक मेले में लोगों की संख्या नाममात्र रही, लेकिन बाद में यह मेला फिर परवान चढ़ने लगा। बीते 30 सालों में यह मेला सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं रह गया बल्कि यह एक मिलन स्थली बन चुका है। देश-विदेश में बसे कश्मीरी पंडित ही नहीं, वादी के कई मुस्लिम परिवार भी इस मेले का इंतजार करते हैं। इस मेले के जरिये उन्हें अपने पुराने दोस्तों, पड़ोसियों से मिलने, उनके बच्चों के बारे में जानने का मौका मिलता है।

कश्मीरी हिदू वेलफेयर सोसाइटी के सचिव चुन्नी लाल ने कहा कि परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हैं कि मेला स्थगित हुआ है। वर्ष 1991-92 के दौरान भी यहां मेला नहीं लगा था। चंद कश्मीरी पंडित परिवारों के लोग और आसपास रहने वाले कुछ श्रद्धालु ही आए थे। अब हमारे कई रिश्तेदार जो यहां से चले गए हैं, वह इसी मेले में भाग लेने के लिए आते हैं। मेले के दौरान ही हमारा मिलना-जुलना होता है। मेरे बचपन का दोस्त आता है हर साल

टंगबाग, डलगेट के रहने वाले सज्जाद बाबा ने कहा कि मेरे बचपन का दोस्त किशन मोजा अपने परिवार के साथ दिल्ली में जाकर बसा है। वर्ष 1990 से 1995 तक वह कश्मीर नहीं आया। मैं ही उससे मिलने दो बार दिल्ली गया था। वर्ष 1996 के बाद वह हर साल क्षीर भवानी के मेले पर यहां आता है। मेले से करीब तीन चार दिन पहले वह अपने परिवार समेत आता है। हमारे साथ ही रहता है। हमारे लिए यह मेला बहुत जरूरी है। यह हमें आपस में जोड़ता है। कनाड़ा से आता है मक्खन लाल का परिवार

सेवानिवृत्त अध्यापक नजीर अहमद के कई दोस्तों और पड़ोसियों को पलायन करना पड़ा था। उन्होंने बताया कि मेरे पिता हाजी गुलाम मोहम्मद मुझे लेकर हर साल तुलमुला जाते थे। कहते थे कि हमारा पड़ोसी मक्खन लाल वहीं पर मिलेगा। वह कनाडा में जाकर बस गए थे। वर्ष 1998 में उन्हें क्षीर भवानी के मेले में ही अपने दोस्त से मुलाकात का मौका मिला। मेरे पिता और मक्खन लाल एक दूसरे के गले लगकर काफी देर तक रोते रहे। इसके दो साल बाद मेरे पिता का देहांत हो गया, लेकिन हम आज भी हर साल मक्खन लाल के परिवार का इंतजार करते हैं। अब उनके दोनों बेटे अपनी बहुओं व बच्चों के साथ आते हैं। लॉकडाउन खुलते ही कश्मीर बुलाया

जम्मू में रहने वाले दीपक जी कौल ने कहा कि माता क्षीर भवानी का मेला हमारे लिए अपनी जड़ों से जुड़ने का मौका देता है। वर्ष 1996 के बाद से अपने पूरे परिवार के साथ तुलमुला जाता हूं। हमारे बच्चों को हमारी सभ्यता और संस्कृति का पता होना चाहिए, इसलिए उन्हें भी लेकर जाता हूं। मेरे बेटे ने सिधी परिवार में शादी की है, उसकी पत्नी ने जब क्षीर भवानी का मेला देखा तो वह हैरान रह गई थी। नटीपोरा में हमारे एक पड़ोसी सुभान साहब अपने बेटे के साथ मेले में हमारा इंतजार करते हैं। इस बार नहीं जा रहे हैं। गत रविवार को ही उनसे फोन पर बात की है। उन्होंने मुझसे वादा लिया है कि लॉकडाउन खुलते ही मैं कश्मीर में पहुंच जाऊं। स्थानीय लोगों को रोजगार भी देता है मेला

माता क्षीर भवानी का मेला स्थानीय अर्थव्यवस्था में भी सहयोग करता है। माता राघेन्या की पूजा के लिए श्रद्धालु जो थाली लेकर जाते हैं, उसमें दीया और दूध स्थानीय मुस्लिम समुदाय द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। मेले के दौरान मंदिर में ही पूजा के लिए लगभग आठ हजार लीटर दूध चढ़ाया जाता है। पूजा के दौरान मंदिर में करीब सवा लाख दीये आरती में इस्तेमाल होते हैं। यह सभी दीये स्थानीय कुम्हारों द्वारा बनाए जाते हैं। प्रत्येक दीये की कीमत उसके आकार के मुताबिक पांच रुपये से 50 रुपये तक होती है। खाने-पीने की सामग्री के स्टॉल भी खूब सजते हैं। श्रीनगर के करालयार इलाके के रहने वाले सज्जाद अहमद ने कहा कि मेले में अगर 25 हजार श्रद्धालु आते हैं और औसतन एक श्रद्धालु पांच दीये खरीदे तो यह संख्या सवा लाख होगी। कई श्रद्धालु एक तो कई श्रद्धालु 11 दिए भी लेते हैं। इस बार अगर मेला नहीं होगा तो कई कुम्हार मुश्किल मे आ जाएंगे और उनमें एक मैं भी हूं।

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