...उस समय उनके साथ जो बीती होगी, अल्लाह करे, ऐसा किसी दुश्मन के साथ भी न हो
Kargil Vijay Diwas आखिरी फोन करके कहा था कि वो द्रास में युद्ध के मैदान में पहुंच चुका हूं अब सलामती की दुआ करना।
कठुआ, राकेश शर्मा। पाकिस्तान को कारगिल की चोटियों से खदड़ने के सालाना जश्न के रूप में भारत में हर साल 26 जुलाई को विजय दिवस भी मनाया जाता है। भारत में जब-जब भी कारगिल का जिक्र होता है तब-तब शौर्य गाथाएं सामने आती हैं। कारगिल विजय दिवस की 20वीं सालगिरह के मौके पर जानते हैं शहीद के शहादत के बाद उनके परिवार वालों की व्याथागाथा;-
कारगिल शहीद की पत्नी ने कहा कि ग्लेशियर में ड्यूटी करने के बाद घर पहुंचे मेरे पति घर से दिल्ली में ड्यूटी करने निकले थे। पर सेना ने उन्हें कारगिल बुला लिया था। कारगिल के द्रास सेक्टर में पहुंचने के बाद उनसे परिवार से कोई बात नहीं हुई और न ही कोई फोन आया। एक जुलाई को शहादत पाने से पहले सिर्फ मेरे भाई नजीर अहमद को आखिरी फोन करके कहा था कि वो द्रास में युद्ध के मैदान में पहुंच चुका हूं, अब सलामती की दुआ करना। उसके कुछ ही दिनों बाद एक जुलाई को उनकी शहादत की सूचना पहुंच गई। सात दिन बाद उनका पार्थिव शरीर घर पहुंचा था।
हालांकि उस समय उनके साथ जो बीती होगी, अल्लाह करे, ऐसा किसी दुश्मन के साथ भी न हो। मेरी गोद में चार बच्चे थे। हमारा सबसे बड़ा बेटा अब्दुल रफीक सातवीं कक्षा में पढ़ता था, अन्य दो बेटियां व बेटा उससे छोटे थे। किसी तरह से अपने आप को संभाला और गर्व भी महसूस हुआ कि उसके पति ने देश के लिए शहादत पाई है, उनके जाने के बाद कैसे अपने आप को संभाला और बच्चों को पालन-पोषण कर उन्हें अच्छी शिक्षा दी, लेकिन उनकी दिल में एक तमन्ना रह गई कि उसका एक बेटा भी सेना में हो जाता। इस बात का आज भी मलाल है। छोटा बेटा परवेज अहमद भी पापा की तरह सेना में भर्ती होने के लिए बहुत उतावला था, लेकिन सेना ने उसे अधिक वेट होने के कारण रिजेक्ट कर दिया।
हालांकि कारगिल शहीदों के परिवारों के लिए सेना में प्राथमिकता होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया, आज भी सेना द्वारा समय-समय पर किए जाने वाले कार्यक्रमो में अधिकारियों से बेटे को सेना में भर्ती करने के लिए गुहार लगाती हूं, सिर्फ आश्वासन ही मिलते हैं। अगर सेना की इंजीनियरिंग विंग एमईएस में भी हो जाए तो भी मुझे संतुष्टि होगी।
नौकरी के दौरान अपना घर होने का सपना पूरा नहीं कर पाए :
12 जेकलाई के शहीद हवलदार अब्दुल करीम की पत्नी गुड्डी अपने पति की शहादत के 20 साल पूरे होने पर उन्हें याद करते हुए अपने आंसू नहीं रोक पाई, लेकिन फिर भी किसी तरह से बहते आंसुओं के बीच गुड्डी बेगम उनके साथ बिताए जिंदगी के कई साल और हमसफर होने के नाते उनसे होने वाली रोज की बातों को याद करते हुए बताती है कि सेना में नौकरी के दौरान किराये के घर में रह कर किसी तरह से वो अपने परिवार का पालन पोषण करते रहे।
इसी दौरान उनके पति ने अपना घर बनाने की योजना भी बनाई लेकिन वो अपना घर सुविधाजनक यानि सड़क के किनारे बनाना चाहते थे, इसी के चलते वो ऊधमपुर के टिक्करी के साईं ठक्कर गांव से शिफ्ट होकर कठुआ में हाईवे के किनारे तारानगर में आकर किराये के मकान में रहने लगे। जहां आकर ही उनकी इसी स्थान पर बसने की योजना बनी, लेकिन उससे पहले वो अपना घर देख पाते, वतन पर मर मिटने का उनका जुनून मुझसे उन्हें छीन कर ले गया। हालांकि बड़ी बेटी नसीम अख्तर की शादी हो चुकी है और छोटी हसीन अख्तर पढ़ाई कर रही है।
वीर नारी बोली-जहां मेरे पति ने पाई थी शहादत वो स्थान देखना चाहती हूं
पति के शहादत स्थल द्रास जाकर वो स्थल देखने के लिए गुड्डी बेगम आज भी सरकार द्वारा वहां ले जाने का इंतजार कर रही है। गुड्डी बेगम बताती है कि वो उस स्थल को देखने के लिए आज भी इंतजार कर रही है, जहां उसके पति ने अंतिम सांसे ली, उस समय उन्होंने उन्हें कितना याद किया होगा, कितना पुकारा होगा, मेरा, मेरे बच्चों का न जाने कितनी बार नाम लिया होगा, लेकिन हालात ऐसे थे कि वो अकेले ही हमसे हमेशा के लिए विदा हुए, इसलिए उस धरती पर उनकी यादें जुड़ी हैं, जिसने आखिरी बार उसे अपनी गोद में संभाल लिया लेकिन आज तक वो वहां नहीं पहुंच पाई। अगर सरकार वहां कोई कार्यक्रम करें तो उन्हें भी वहां बुलाए।
आज मेरे पापा होते तो क्या कुछ नहीं होता : परवेज
शहादत के बाद अब्दुल करीम के परिवार को सरकार ने उस समय की बनाई गई नीति के अनुसार सम्मान देते हुए पेट्रोल पंप अलाट किए। जिसके चलते शहीद के परिवार ने कठुआ में ही पैट्रोल पंप लगा रखा है। जिसका प्रबंधन शहीद के दोनों बेटे अब्दुल रफीक एवं परवेज अहमद देख रहे हैं, लेकिन छोटे बेटे परवेज को आज भी सेना में भर्ती होने का मौका नहीं मिलने का मलाल रह गया है, का कहना है कि अगर आज पापा होते तो क्या कुछ नहीं होता।
9 वर्षीय पोता अब्दुल हसीब बोला, मैं भी दादू की तरह सेना मेंं भर्ती होकर बंदूक ऊठाउंगा
शहीद अब्दुल करीम का 9 वर्षीय पोता अब्दुल हसीब घर में लगे दादू का सेना की वर्दी और हाथों में बंदूक लिए चित्र को देखकर कहता रहता है कि वो भी दादू की तरह सेना में ही भर्ती होगा और बंदूक लेकर दुश्मन को ठिकाने लगाएगा। घर में ही बंदूक को उठाकर रोज प्रेक्टिस करता है। जिसे देखकर दादी गुड्डी बेगम उसे सेना मेंं भर्ती कराने का दिलासा देती है।
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