संत नहीं बन सकते तो संतोषी बन जाओ : आचार्य जगन्नाथ
जागरण संवाददाता राजौरी मनुष्य स्वयं को भगवान बनाने के बजाय प्रभु का दास बनने का प्रयास करे
जागरण संवाददाता, राजौरी : मनुष्य स्वयं को भगवान बनाने के बजाय प्रभु का दास बनने का प्रयास करे, क्योंकि भक्ति भाव देखकर जब प्रभु में वात्सल्य जागता है तो वह सब कुछ छोड़कर अपने भक्तरूपी संतान के पास दौड़े चले आते हैं। गृहस्थ जीवन में मनुष्य तनाव में जीता है, जबकि संत सद्भाव में जीता है। यदि संत नहीं बन सकते तो संतोषी बन जाओ। संतोष सबसे बड़ा धन है। मूर्ति स्थापना की वर्षगांठ के पावन अवसर पर जवाहर नगर शिव मंदिर में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के सातवें दिन आचार्य जगन्नाथ उपाध्याय ने यह बातें कहीं।
उन्होंने कथा के दौरान श्रीकृष्ण एवं सुदामा की मित्रता के बारे में बताया कि सुदामा के आने की खबर पाकर किस प्रकार श्रीकृष्ण दौड़ते हुए दरवाजे तक गए थे। पानी परात को हाथ छूवो नाहीं, नैनन के जल से पग धोये। श्रीकृष्ण अपने बाल सखा सुदामा की आवभगत में इतने विभोर हो गए कि द्वारिका के नाथ हाथ जोड़कर और अंग लिपटाकर जल भरे नेत्रों से सुदामा का हालचाल पूछने लगे। उन्होंने बताया कि इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मित्रता में कभी धन दौलत आड़े नहीं आती।
उन्होंने सुदामा चरित्र की कथा का प्रसंग सुनाकर श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। उन्होंने कहा कि स्व दामा यस्य स: सुदामा अर्थात अपनी इंद्रियों का दमन कर ले, वही सुदामा है। सुदामा की मित्रता भगवान के साथ नि:स्वार्थ थी। उन्होंने कभी उनसे सुख, साधन या आर्थिक लाभ प्राप्त करने की कामना नहीं की, लेकिन सुदामा की पत्नी द्वारा पोटली में भेजे गए चावलों ने भगवान श्रीकृष्ण से सारी हकीकत कह दी और प्रभु ने बिन मांगे ही सुदामा को सब कुछ प्रदान कर दिया। भागवत ज्ञान यज्ञ के सातवें दिन कथा में सुदामा चरित्र का वाचन हुआ तो मौजूद श्रद्धालुओं के आखों से आंसू बहने लगे। उन्होंने कहा कि श्रीकृष्ण भक्त वत्सल हैं। सभी के दिलों में विहार करते हैं। जरूरत है तो सिर्फ शुद्ध ह्रदय से उन्हें पहचानने की।
रविवार को जवाहर नगर शिव मंदिर में भंडारे का आयोजन किया जाएगा। इसके साथ ही यह कार्यक्रम संपन्न हो जाएगा।