मां से पिता की शहादत के किस्से सुन फौजी बने बेटे ने शहीद पिता नायब सूबेदार रवैल सिंह को दी श्रद्धांजलि Jammu News
कर्तव्य वीरता और साहस का संदेश देता है। सूबेदर रवैल सिंह के साथ उनके छोटे भाई मेरे चाचा लाड सिंह भी कारगिल युद्ध के दौरान मोर्चे पर तैनात थे।
जम्मू, सतीश शर्मा। बीस बरस पहले कारगिल की जिन चोटियों को पाकिस्तान के धूर्ततापूर्ण कब्जे से मुक्त करवाते पिता ने सर्वोच्च बलिदान दे दिया था, वहां दुश्मन के नापाक कदम फिर न पड़ें, इसलिए अब शहीद का बेटा हाथ में बंदूक लिए सीमा की निगहबानी कर रहा है। टाइगर हिल पर दुश्मन को धूल चटाने वाले जम्मू जिले के सीमांत क्षेत्र बिश्नाह के गांव मखनपुर के सेना मेडल विजेता शहीद नायब सूबेदार रवैल सिंह के सुपुत्र बख्तावर पिता के पद्चिन्हों पर चल रहे हैं। पिता की शहादत के समय बख्तावर की उम्र महज आठ साल थी। मां से पिता की वीरता के किस्से सुन वह जवान हुए। और मां की प्रेरणा से फौजी बन पिता को सच्ची श्रद्धांजलि दी।
बख्तावर कहते हैैं, 20 वर्ष पूर्व कारगिल विजय इतनी आसान नहीं थी। दुश्मन ऊंची चोटी पर बैठ गोले दाग रहा था और भारतीय जवान सीधे निशाने पर थे। टाइगर हिल पर फिर से तिरंगा फहराने के लिए पिता सहित कई जवान हंसते-हंसते कुर्बान हो गए, मगर देश के दुश्मनों को खदेड़ कर ही दम लिया। मुझे याद है कि सिख रेजिमेंट के नायब सूबेदार मेरे पिता रवैल सिंह का पार्थिव जब तिरंगे में ढंक घर लाया गया तो मां की क्या प्रतिक्रिया थी। उन्होंने आंसुओं को थाम लिया था। उनकी आंखों में मैैंने जो पिता के लिए जो गर्व और जज्बा देखा, वह मुझे आज भी प्रेरित करता है।
कर्तव्य, वीरता और साहस का संदेश देता है। सूबेदर रवैल सिंह के साथ उनके छोटे भाई मेरे चाचा लाड सिंह भी कारगिल युद्ध के दौरान मोर्चे पर तैनात थे। वह गवाह हैैं कि किस तरह मेरे पिता ने पाकिस्तान के कई सैनिकों को मार कर शहादत पाई। मैैंने पिता की शहादत का किस्सा उनसे सुना।
परिजन और गांववाले बताते हैैं, मां सुरेंद्र कौर के सामने पहाड़ सी जिंदगी थी। मासूम बच्चों के लालन-पालन का जिम्मा भी। लेकिन वह डरी नहीं। जब शहीद का अंतिम संस्कार हो रहा था तो प्रण लिया कि देशसेवा का सिलसिला अब थमेगा नहीं। बच्चों को भी सेना में ही भेजेंगी। वह बच्चों को पिता की बहादुरी के किस्से सुनाया करतीं। पिता के हौसले व जज्बे और मां की प्रेरणा ने बेटे बख्तावर सिंह कीरगों में वो जोश भरा जो लहू बनकर दौड़ा। आज बख्तावर भी सिख रेजीमेंट में सिपाही बनकर देश के पूर्वोत्तर में देश की रक्षा में सीना ताने खड़ा है। वह पिता की तरह ही कारगिल के द्रास में भी ड्यूटी कर चुके हैैं। शहीद रवैल सिंह आज भी बेटे बख्तावर ही नहीं बल्कि क्षेत्र के युवाओं के भी प्रेरणास्रोत हैं। आमजन और युवा उनकी याद में बने स्मारक पर लगी फोटो के आगे शीश झुकाते हैैं।
वतन पर मिटना ही जिंदगी है...
समय आने पर लोग देखेंगे कि मैं भी अपने बहादुर पिता की तरह दुश्मन के खेमे में खलबली मचा दूंगा। मैं युद्ध के मैदान में कभी भी पीठ नही दिखाऊंगा। मैं मानता हूं और जानता हूं कि वतन पर मिटना ही जिंदगी है। -बख्तावर सिंह, सुपुत्र शहीद रवैल सिंह
पोतों को भी फौजी बनाऊंगी...
मैं अपने पोतों को भी फौज में भेजूंगी। वे भी अपने दादा की बहादुरी से बहुत प्रभावित हैं। मैं खुश हूं कि एक बेटा फौजी है। दूसरे को भी सेना में भेजना चाहती थी, लेकिन कुछ औपचारिकताएं पूरी न होने के कारण ऐसा नहीं हो सका। जिसका मुझे बहुत अफसोस है। दादा सरदार रवैल सिंह की बहादुरी के किस्से सुन पोते-पोतियों में भी देशभक्तिका जुनून पल रहा है। -सुरेंद्र कौर, शहीद रवैल सिंह
ये था ऑपरेशन विजय...
1999 में पाकिस्तान अपने सैनिकों और अर्ध-सैनिक बलों को छिपाकर नियंत्रण रेखा के पार भेजने लगा। इस घुसपैठ का नाम उसने ऑपरेशन बद्र रखा था। उद्देश्य कश्मीर और लद्दाख के बीच की कड़ी को तोडऩा और भारतीय सेना को सियाचिन ग्लेशियर से हटाना था। भारत ने प्रारंभ में इस घुसपैठ को इतनी बड़ी साजिश नहीं जाना था, लेकिन जल्द ही भारतीय सेना को अहसास हो गया कि यह हमले की योजना है, जिसे बहुत बड़े पैमाने पर अंजाम दिया गया है। भारत सरकार ने ऑपरेशन विजय नाम से दो लाख सैनिकों को हजारों फीट ऊंची चोटियों पर भेजा। यह युद्ध आधिकारिक रूप से 26 जुलाई 1999 को समाप्त हुआ। इस युद्ध के दौरान 527 सैनिकों ने अपने जीवन का बलिदान दिया।