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Jammu Kashmir: कैलाश कुंड यात्रा का शुभारंभ; जानिए यात्रा के प्रबंध, क्या है इसका इतिहास!

यात्रा मार्ग पर श्रद्धालुओं की सेवा के लिए लगाए जाने वाले भंडारे के सेवादारों की विभिन्न कमेटियां अपने-अपने निर्धारित स्थान के लिए रवाना हो गई।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Tue, 27 Aug 2019 01:29 PM (IST)Updated: Tue, 27 Aug 2019 01:29 PM (IST)
Jammu Kashmir: कैलाश कुंड यात्रा का शुभारंभ; जानिए यात्रा के प्रबंध, क्या है इसका इतिहास!

बनी। कठुआ व डोडा जिले की सीमा पर स्थित कैलाश कुंड की वार्षिक धार्मिक पर्यटन यात्रा का अधिकारिक रूप से शुभारंभ हो गया है। इस उमस भरी गर्मी एवं तेज धूप में भी बर्फ जैसा मौसम और चारों तरफ से बड़े-बड़े पहाड़ों की गोद में एक अलग प्राकृतिक वातावरण वाले इस धार्मिक स्थल में वासुकीनाथ के मंदिर के साथ तालाबनुमा, जिसे कैलाश कुंड के नाम से जाना जाता है, की यात्रा को लेकर बनी कस्बे के श्रद्धालुओं में भारी उत्साह है।

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यात्रा मार्ग पर श्रद्धालुओं की सेवा के लिए लगाए जाने वाले भंडारे के सेवादारों की विभिन्न कमेटियां अपने-अपने निर्धारित स्थान के लिए रवाना हो गई। इसी क्रम में बनी से लंगर सेवादारों दल छत्तरगलां के लिए रवाना हुआ। लंगर कमेटी के प्रधान जिया लाल ने बताया कि तीन दिनों तक चलने वाली यात्रा के दौरान उनका दल छत्तरगलां में यात्रा मार्ग पर श्रद्धालुओं की सेवा के लिए अपना लंगर लगाएगा, जहां श्रद्धालुओं को भोजन के साथ-साथ विश्राम की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। यात्रा को सफल बनाने के लिए प्रशासन द्वारा भी अपने तौर पर कई तरह के प्रबंध किए गए है।

इस संबंध में एसडीएम बनी जोगिंदर सिंह जसरोटिया ने बताया कि तहसील से होकर गुजरने वाले सभी यात्रा मार्ग पर सुरक्षा के साथ श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए पानी और स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया है। इस प्रबंध पर नजर रखने के लिए जगह-जगह कर्मचारी तैनात किए गए है, ताकि यात्रा में आने वाले श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की परेशानी न आए।

कैसी है यात्राः जिले की सीमा पर 14500 फीट की उंचाई पर स्थित कैलाश कुंड की तहसील से गुजरने वाली यात्रा के छत्तरगलां मार्ग पारंपरिक है। बनी से 40 किलोमीटर की दूरी पर डोडा एवं कठुआ जिले की सीमा पर स्थित इस कुंड तक पहुंचने के लिए करीब 25 किलोमीटर मार्ग पैदल ही है, जिसे पूरा करने के लिए 6 से 7 घंटे लगते हैं। बनी से छत्तरगलां तक हल्के वाहनों से पहुंचा जा सकता है। करीब पच्चीस किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ों का सफर कर श्रद्धालु जब कैलाश कुंड पर पहुंचकर बर्फीले पहाड़ों से घिरे विशाल सरोवर का दर्शन करते हैं तो उनकी सारी थकान खत्म हो जाती है। इसके बाद श्रद्धालु कुंड के ठंडे पानी में स्नान कर वहां स्थित वासुकीनाथ मंदिर में दर्शन के लिए जाते है। पहाड़ों के प्राकृतिक सौंदर्य के नजारों से भरपूर इस यात्रा में शामिल होने के लिए भक्त पड़ोसी राज्य पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान से हजारों की संख्या में आते है।

क्या है यात्रा का इतिहासः इस यात्रा के शुरू होने का कोई भी अधिकारिक प्रमाण नहीं है, लेकिन दंत कथाओं के अनुसार वर्ष 1629 में बसोहली के राजा भूपतपाल, जिनका राज्य भद्रवाह तक फैला था। वे भद्रवाह से वापस लौट रहे थे, रास्ते में पडऩे वाले कैलाश कुंड को पार करने के लिए वे कुंड में घुस गए। जब वे कुंड के बीच में पहुंचे तो उन्हें कुंड पर रहने वाले नागों ने चारों ओर से घेर लिया। राजा को जब अपनी गलती का अहसास हुआ तो उन्होंने अपने कानों में पहने स्वर्ण कुंडल वहां भेंट कर अपनी गलती की क्षमा मांगी। तब नागों ने उन्हें जीवित कुंड से बाहर जाने दिया।

कुंड से निकलने के बाद राजा ने आगे का सफर शुरू करने से पहले वहां निकलने वाले झरने से अपनी प्यास बुझाने लगे तो पानी के साथ उनके स्वर्ण कुंडल भी उनके हाथ में आ गए। इसके बाद राजा ने वहां वासुकीनाथ का मंदिर निर्माण करने का प्रण लिया। माना जाता है कि राजा अपने साथ प्रतीक के तौर उस स्थान से एक पत्थर अपने साथ बसोहली ले जाने के लिए उठा लिया और आगे के सफर पर निकल गए। अभी वह पनियालग के पास पहुंचे थे कि किसी काम से उन्होंने वह पत्थर वहीं जमीन पर रख दिया और दोबारा जब उसे उठाने का प्रयास किया तो हर संभव प्रयत्न के बाद भी वह उसे उठा नहीं सके। इसके बाद राजा ने पनियालग और कैलाश कुंड में वासुकीनाथ के मंदिरों का निर्माण करवाया। माना जाता है कि इसके बाद से ही यात्रा शुरू हुई है जो अब तक जारी है। 


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