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Kashmir: अंगूर की खेती बदल रही रेपुरा की तकदीर, कभी चीन से ईरान तक होता था निर्यात

जम्मू-कश्मीर अभिलेखागार में उपलबध दस्तावेजों के मुताबिक 1876 में फ्रांस के इतिहासकार और यात्री मोनस्यूर एच डेनवरुआ ने 1876 में जंगली अंगूरों से शराब तैयार की थी।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Thu, 13 Aug 2020 05:39 PM (IST)Updated: Fri, 14 Aug 2020 02:29 AM (IST)
Kashmir: अंगूर की खेती बदल रही रेपुरा की तकदीर, कभी चीन से ईरान तक होता था निर्यात
Kashmir: अंगूर की खेती बदल रही रेपुरा की तकदीर, कभी चीन से ईरान तक होता था निर्यात

श्रीनगर, नवीन नवाज। लालचौक से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित रेपुरा का नाम वादी से बाहर क्या वादी में भी बहुत कम लोगों को पता होगा। कभी यह गांव इरान, अफगानीस्तान और चीन तक मशहूर था। इसकी मिट्टी में पैदा होने वाले अंगूर अपनी मिठास और आकार में कोई सानी नहीं रखते थे। समय बीतने के साथ अंगूर की पैदावार और निर्यात घटने के साथ यह गांव भी लोगों के मानसपटल से गायब हो गया। लेकिन अब यह एक बार फिर अपनी तकदीर बदलने के मूड में आ चुका है। जिस समय पूरी दुनिया में कहीं ताजा अंगूर उपलब्ध नहीं होता, उस समय सिर्फ इटली के अलावा कश्मीर में ही रसीला अंगूर लोगों का गला तर करने के लिए तैयार होता है।

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घाटी में अंगूर की खेती सदियों से होती आ रही है। नीलमत पुराण और राजतरंगनी में भी कश्मीर में अंगूर, केसर की पैदावार का उल्लेख है। चीनी यात्री ह्यूनसेंग ने भी अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि कश्मीर में नाशपति, आलू बुखारा, आड़ू और खुबानी व अंगूर खूब पैदा किया जाता रहा है। इससे बनायी जाने वाली शराब को मस्स कहते थे। जम्मू-कश्मीर अभिलेखागार में उपलबध दस्तावेजों के मुताबिक, 1876 में फ्रांस के इतिहासकार और यात्री मोनस्यूर एच डेनवरुआ ने 1876 में जंगली अंगूरों से शराब तैयार की थी। तत्कालीन महाराजा रणबीर सिंह उससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसे कश्मीर में शराब बनाने की जिम्मेदारी दी। कश्मीर के इतिहास पर लिखी किताब में भी इसका जिक्र आता है।

कबाइली हमले से पहले पाकिस्तान-अफगानिस्तान जाता था अंगूर: गुलाम नबी नामक एक स्थानीय ग्रामीण ने कहा कि हमारे गांव में पैदा होने वाले अंगूर बहुत रसीले और मीठे हैं। मैंने अपने पिता से सुना है कि एक बार उन्हें जब सर्दियों में ताजा अंगूर मिले तो वह हैरान रह गए थे । कश्मीर पर कबाइली हमले से पहले यहां पैदा होने वाला अंगूर मुजफ्फराबाद के रास्ते पाकिस्तान के रावलपिंडी, लाहौर, इरान, अफगानिस्तान जाता था। बाद में यह काम ठप हो गया। लोगों ने अंगूर की खेती छोड़ सेब पर ध्यान देना शुरू कर दिया। 

यह मिठास सूफी संत मीर सैयद शाह कलंदर की देन है: अब्दुल मजीद नामक एक अन्य ग्रामीण ने बताया कि मुझे ज्यादा पता नहीं है, लेकिन हमारे बाप-दादा कहते हैं कि हमारे इलाके के अंगूरों की मिठास मीर सैयद शाह सदीक कलंदर की देन है। वह बहुत बड़े सूफी संत थे। इसी इलाके में रहते थे। उसने बुंगली बाग का जिक्र करते हुए कहा कि एक बार महाराजा के सिपहसालार राय बहादुर जनक सिंह को रेपुरा के अंगूर भेंट किए। अंगूर खाने के बाद उन्होंने पूछा कि यह कहां से हैं। तब उन्हें पता चला कि रेपुरा से आए हैं। उन्होंने यहां बहुत जमीन खरीदी जिस पर अंगूर का बाग तैयार किया। उनका बंगला भी बुंगलीबाग में ही था।

मजीद ने बताया कि करीब 12 साल पहले यहां कृषि विज्ञान केंद्र वालों ने अंगूर की खेती के लिए हम किसानों को प्रोत्साहित करना शुरु किया। अपना एक अंगूर का बाग तैयार किया, जिसमें किसानों की ट्रेनिंग होती है। लेकिन यह परियोजना बहुत धीमी गति से चलती रही। बीते एक साल में इसमें तेजी आयी है।अब बहुत से किसान अंगूर उगा रहे हैं।

रेपुरा का अंगूर दुनियाभर में मशहूर है: बागवानी अधिकारी मंजूर बट ने बताया कि रेपुरा का अंगूर अपने गुणों के कारण दुनियाभर में मशहूर है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छी क्वालिटी के अंगूर का दाना 4-4.5 ग्राम का होता है जबकि यहां पैदा होने वाले अंगूर का दाना 12.5 ग्राम तक होता है। जो बहुत ही बढिय़ा है। हम स्थानीय किसानों को अत्याधुनिक तनकीक से अवगत करा रहे हैं। अंगूर की खेती में सुधार व अत्याधुनिक उपकरणों को अपनाने के लिए आसान शर्तों पर कर्ज भी उपलब्ध करा रहे हैं। लोहे का बोअर सिस्टम तैयार करने पर सब्सिडी भी दे रहे हैं। रेपुरा में हुसैनी, साहिबी, किशमिश, ब्लैक रुबी और बीज रहित थामसन किस्म के अंगूर उगा रहे हैं।

अंगूर को तरोताजा रखने का परंपरागत तरीका हैरान करने वाला : अंगूर को ज्यादा समय तक तरोताजा रखना आसान नहीं है। स्थानीय लोगों का परंपरागत तरीका हैरान करने वाला है। यह लोग अंगूर को मिट्टी के बर्तनों में रखकर उसे मिट्टी से ढककर रखते थे।इस तरह यह अंगूर को स्थानीय मौसम के मुताबिक करीब पांच से छह माह तक संरक्षित रखते थे। बाजार में मांग के अनुरूप उसे पहुंचाते थे। अब जमाना बदल गया है। अब रेफ्रिजरेशन और कोल्ड स्टोर का इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन अब अंगूर को जमा करने की जरुरत नहीं होती, क्योंकि इसकी मांग बहुत ज्यादा है। स्थानीय बाजार में ही रेपुरा में पैदा होने वाले अंगूर की कीमत उसकी किस्म व गुणवत्ता के आधार पर दो सौ रुपये प्रतिकिलो से पांच सौ रुपये प्रति किलो है। राष्ट्रीय कृषि विज्ञान योजना तहत स्थानीय किसानों को हर संभव मदद की जा रही है। करीब 540 किसानों को अंगूर की खेती के लिए विभिन्न योजनाओं के तहत मदद की गई है। आज रेपुरा में ही नहीं आसपास के कई अन्य गांवों में भी लोग अंगूर की पेशेवर खेती को अपना चुके हैं।

इस साल 1000 मीट्रिक टन अंगूर की पैदावार की उम्मीद: मंजूर बट ने बताया कि करीब पांच साल पहले तक इस इलाके में करीब 400 मीट्रिक टन अंगूर पैदा हो रहा था। इस साल हमें करीब 1000 मीट्रिक टन अंगूर की पैदावार की उम्मीद है। रेपुरा का अंगूर इस समय पूरे देश में लोगों के मुंह में मिठास घोलने के लिए मंडियों में पहुंचना शुरू हो गया है।


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