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DDC Chaunav 2020 : कश्मीर घाटी में विकास को सरपट दौड़ाने की चाह

सियासी दल मजहबी और अलगाववादी विचारधारा को भड़काकर सत्ता की कुंजी कब्जाने की जुगत लगाते। चुनाव से बाहर रहकर भी जमात चुनाव में पूरा दखल रखती और खासकर कश्मीरी दलों के प्रत्याशी जमात के समर्थन के बूते चुनावी नैया पार करने की फिराक में रहते।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 11 Dec 2020 10:06 AM (IST)Updated: Fri, 11 Dec 2020 12:38 PM (IST)
उम्मीद है कि ये नए प्रतिनिधि इस दिशा में कुछ कदम बढ़ाएंगे।

जम्मू, अनिल गक्खड़। पहली बार...। अलगाववादियों के गढ़ में हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारे। जहां कभी आतंकियों की तूती बोलती थी, अब वहां तिरंगा रैली। कट्टरपंथी तत्वों की धमकियां नहीं, अब विकास और सुशासन के नारे। बदलाव बड़ा है- यकीकन, बड़े फैसले लेने की क्षमता और इच्छाशक्ति के कारण ही। सिर्फ यही अहम नहीं है कि अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद जम्मू कश्मीर में पहली बार जिला विकास परिषद के चुनाव हो रहे हैं। दुर्गम पहाड़ों और ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान के लिए लगी कतारें और जम्‍मू कश्‍मीर के जनमानस की गांव की पगडंडियों पर विकास की डोर के सहारे आगे बढऩे की चाह इन चुनावों को कई मायनों में खास बना रही है।

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कश्मीर घाटी में अलगाववादी ताकतों की बोलती बंद है और आतंकी यहां-वहां छिपते फिर रहे हैं। प्रदेश में चुनाव भले ही जिले की विकास परिषदों के लिए लड़े जा रहे हों, लेकिन नारों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन और विरोध ही गूंज रहा है। लखनपुर से कुपवाड़ा तक या तो भाजपा के लिए वोट मांगे जा रहे हैं या फिर भाजपा को परास्त करने के नाम पर। पीपुल्स एलायंस और कांग्रेस मिलकर चुनाव में उतरने के लाख दावे करें पर प्रचार में वह जोश नहीं ला पा रहे। हां, कुछ निर्दलीय अवश्य अपनी-अपनी सीटों पर दम दिखाने का प्रयास करते दिख रहे हैं।

नियंत्रण रेखा से सटे पहाड़ी गांव हों, जम्मू के सपाट मैदान या फिर कश्मीर की घाटियां, चुनावी रंग हर छोर पर दिख रहे हैं। दुर्गम क्षेत्रों में रैलियां निकल रही हैं और शायद पहली बार राष्‍ट्रवादी नारे गली-मुहल्लों और रैलियों में गूंज रहे हैं। अलगाववादियों के गढ़ माने जाने वाले श्रीनगर और सोपोर में बेखौफ तिरंगा रैलियां नए कश्मीर के उदय का एलान कर रही हैं।

अब समझें कि यह बदलाव अहम क्‍यों है। कश्मीर में आतंकवाद के फलने-फूलने के साथ वादी की सियासत तेजी से बदली और कट्टरपंथी ताकतें पांव पसारती गई। 1996 से अब तक 2002, 2008 और 2014 में विधानसभा चुनाव हुए हैं। इस दौरान लोकसभा के लिए वोट पड़े और दो बार पंचायत चुनाव के लिए भी। पर इस बार के चुनाव सबसे जुदा हैं। वह सभी चुनाव अलगाववादियों और आतंकियों की धमकियों के बीच कट्टरपंथी तत्वों के समर्थन से ही लड़े जाते रहे। सियासी दल मजहबी और अलगाववादी विचारधारा को भड़काकर सत्ता की कुंजी कब्जाने की जुगत लगाते। चुनाव से बाहर रहकर भी जमात चुनाव में पूरा दखल रखती और खासकर कश्मीरी दलों के प्रत्याशी जमात के समर्थन के बूते चुनावी नैया पार करने की फिराक में रहते। मतदान को नियंत्रित करने की साजिशें बुनी जातीं। इन सबके बीच सुरक्षा के ताम-झाम के साथ प्रचार भी चलता रहता।

इस सबके विपरीत अब सब बदला दिख रहा है। अनुच्छेद 370 के बाद सामान्य होते हालात के बावजूद भले ही हालात बिगाड़ने की साजिशें भी जारी हों पर लोकतंत्र के प्रति जम्मू कश्मीर के जज्बे को देखकर तमाम विघटनकारी ताकतें सदमे में है। इस बार इनकी लड़ाई आम आदमी के जोश से जो है। शायद यही वजह है कि यह चुनाव उत्सव का रूप लेता दिख आ रहा है। चुनावी सभाओं में ढोल बज रहे हैं, लोग थिरक रहे हैं। ऐसे में अलगाववादी नारे नहीं, विकास की राह पर कदम बढ़ाते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग के दावे किए जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो दहशत और पिछड़ेपन की ताम बंदिशें तोड़कर कश्मीर आगे बढ़ जाना चाहता है। कट्टरपंथी और अलगाववादी ताकतों की बोलती बंद है। शोपियां, अनंतनाग, बडग़ाम, बांडीपोरा और कुपवाड़ा जैसे जिलों में लोग जिस तरह से मतदान केंद्रों पर उमड़े वह कश्मीर की बदलाव के प्रति तीव्र चाह और विकास की अपेक्षाओं को ही प्रदर्शित करता है।

बडग़ाम के नरबल क्षेत्र में एक केंद्र पर मतदान के लिए कतार में लगे युवाओं को टटोलने का प्रयास किया तो सब एकसाथ बोल उठे। भ्रष्टाचार में जकड़ी व्यवस्था से सब आजिज हैं। बिजली, पानी और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए हम दशकों से जूझ रहे हैं पर सुनवाई नहीं थी होती थी। इसी जगह कई बार प्रदर्शन किए। अब सोचा कि बाद में हंगामे से बेहतर है कि हम मतदान करें और अपने बीच से अपना प्रतिनिधि चुनें।

बांडीपोरा के पहाड़ी क्षेत्र से कई किलोमीटर लाठी के सहारे पैदल चलकर गोरनार मतदान केंद्र पर पहुंचे बुजुर्ग का दुख यह है कि आज तक उसके गांव में सड़क नहीं पहुंच पाई है। हर बार जिनके लिए वोट डाला, वह सिर्फ अपना विकास करते रहे पर उनका गांव इसकी बयार से भी अछूता रहा। हो सकता है शायद अब प्रधानमंत्री मोदी उनकी समस्याओं को समझकर कुछ करें। यही सोचकर वोट डालने आया हूं कि शायद अगली पीढ़ी को इन परेशानियों से आजादी मिल सके। सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा की चुनौतियों से जूझ रहे आम कश्मीरी इन चुनावों में अपनी समस्याओं के समाधान की कुंजी खोज रहे हैं। उम्मीद है कि यह नए प्रतिनिधि इस दिशा में कुछ कदम बढ़ाएंगे करेंगे।

प्रचार में विपक्ष को खोजते रह जाओगे : विपक्षी दल एकजुट होकर चुनाव लड़ने का दावा जोरशोर से कर रहे हैं लेकिन प्रचार में कहीं जोर नहीं दिखाई देता। आपसी सामंजस्य और मिलकर चुनाव लडऩे के दावों के बावजूद एक-दूसरे के खिलाफ डमी प्रत्याशी उतारे जा रहे हैं। कांग्रेस अभी भी सदमे में है और तय नहीं कर पा रही है कि क्या करे? साफ है कि न चुनाव से उसकी तैयारी दिखी और न चुनाव घोषित होने के बाद ही तैयारी कर पाई। एक ओर भाजपा ने केंद्रीय मंत्रियों की फौज गली-मुहल्लों तक प्रचार में उतार दी, वहीं दूसरी ओर पांचवें चरण का प्रचार थमने के बाद कांग्रेस की प्रदेश प्रभारी वहां कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने पहुंची हैं।

[समाचार संपादक, जम्मू]


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