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1971 के युद्ध में पाकिस्तान के मेजर से हाथों-हाथ भिड़ गए वीर चक्र से सम्मानित कर्नल वीरेंद्र साही, पढ़ें उनके शौर्य की कहानी उनकी जुबानी

मैंने दुश्मन के मेजर को काफी देर तक चले हैंड टू हैंड फाइट में मार गिराया। मेरी पोस्ट पर यह तीसरा बड़ा हमला था। हम दुश्मनों पर भारी पड़े। मुझे खुशी थी कि दुश्मनों के इरादे पूरे नहीं हो पाए और हमने 78 वर्ग किलोमीटर जमींन को बचा लिया था।

By Vikas AbrolEdited By: Published: Thu, 09 Dec 2021 08:09 PM (IST)Updated: Thu, 09 Dec 2021 08:35 PM (IST)
1971 के युद्ध में पाकिस्तान के मेजर से हाथों-हाथ भिड़ गए वीर चक्र से सम्मानित कर्नल वीरेंद्र साही, पढ़ें उनके शौर्य की कहानी उनकी जुबानी
जम्मू कश्मीर के सपूत कर्नल वीरेंद्र साही को बहादुरी के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

जम्मू, अवधेश चौहान। भारतीय सेना के बाहदुर जब बांग्लादेश को आजाद करवाने के लिए दुश्मन के घुटने टिकवा रहे थे तो उस समय सेना के वीर जवान जम्मू के छम्ब सेक्टर में घुसपैठ कर आए पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराकर अपनी जमींन सुरक्षित बनाए रखी। इस युद्ध में भारतीय सैनिकों की वीरता हावी रही, 87 पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराकर अपने 17 वीरों ने प्राणों की आहुति दी। इस युद्ध गोलियों के साथ हाथों हाथ लड़ाई भी हुई। हम दुश्मन की लाशे गिराते हुए उसकी सेना को पीछे खदेड़ते गए। शरीर गोलियों से छलनी होने के बाद जम्मू कश्मीर के सपूत कर्नल वीरेंद्र साही ने अपनी जान की परवाह न करते हुए देश के प्रति सम्पिर्त भाव का परिचय दिया। उनकी इस बहादुरी के लिए उन्हें वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

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कर्नल साही ने 1971 के युद्ध के अनुभवों को जागरण संग साझा करते हुए बताया कि पाकिस्तान की कोशिश थी कि जम्मू के अखनूर सेक्टर में अगर कब्जा कर लिया जाए तो जम्मू संभाग का राजौरी, पुंछ जिला और नौशहरा तहसील पर आसानी से कब्जा हो जाएगा। हमारी पोस्ट छम्ब ज्यौड़ियां के ललियाली में थीं। साही बताते हैं कि 7 दिसंबर की रात थी। तभी पाकिस्तानी सैनिक मेरी पोस्ट में घुस आए। सामने देखता हूं तो पाकिस्तानी सैनिक पाकिस्तानी मेजर फारूक मेरे सामने आ रहा था। बिना पल गंवाए मैंने और मेरे जवानों ने दुश्मनों को मौका नहीं दिया। उनकी संख्या की परवाह न करते हुए। फायरिंग शुरू हो गई। एक वक्त तो आ गया कि मेरी मेजर से गुत्थमगुत्था हो गई। बचपन से कुश्ती का शोक था। मैंने दुश्मन के मेजर को काफी देर तक चले हैंड टू हैंड फाइट में मार गिराया। मेरी पोस्ट पर यह तीसरा बड़ा हमला था। हम दुश्मनों पर भारी पड़े। मुझे खुशी थी कि दुश्मनों के इरादे पूरे नहीं हो पाए और हमने 78 वर्ग किलोमीटर जमींन को बचा लिया था। सीजफायर के दौरान 87 दुश्मनों के सैनिकों के शव लौटाए, जबकि हमारे 17 जवान बलिदानी हुए। उनकी इस बाहदुरी के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरी ने परमवीर चक्र से सम्मानित किया।अलग अलग युद्ध के दौरान मुठभेड़ में मेरे शरीर में गोलियों के निशान है। शरीर में 272 टांके अभी भी देश के प्रति मर मिटने के जज्बे को जगा देते हैं।

युद्ध में 3 भाई भी अलग अलग क्षेत्रों में मोर्चा संभाले थे

1971 की जंग में वह अकेले देश की रक्षा के लिए नही लड़ रहेे थे, इस जंग में उनके साथ तीन सगे भाई भी युद्ध में दुश्मनों के साथ लोहा ले रहे थे। कर्नल साही बताते हैं कि उनके 7 भाई हैं, जिनमें से 3 अब इस दुनियां में नहीं हैं। सुभाष साही एयरफोर्स में थे, अब वह जीवित नहीं हैं। हरिंदर सिंह साही और केएस साह नैवी में थे। बाद में केएस साही आल इंडिया रेडियों में बतौर डायरेक्टर रहे।

कबायली हमले के बाद सेना में भर्ती होने की ठान लिया

कश्मीर में पाकिस्तानी कबायली हमले के वक्त मैं 7 साल का था।जब उत्तरी कश्मीर के बारामुला जिले में घुस आए।उन्होंने महिलाओं पर जुल्मों सितम ढाहना शुरू कर दिया। औरतों के साथ बदसलूकी मेरे आंखों देखी है।घोड़ा-गाड़ी तांगे में जख्मी हालत में पाकिस्तानी दरिंदगी का शिकार महिलाएं श्रीनगर के मीराकदल इलाके में आती थी।जिनके शरीर पर कपड़े तक नही होते थे।शरीर और चेहरे पर खून के दाग हवस के निशान बयां कर रहे होते थे।लोग उन पर चुन्नी या कपड़ा उड़ाकर उन्हें ढकते थे। मेरे पिता भी तांगा चलाते थे।यह मंजर मेरे जहन में यह छाप छोड़ गया कि इसका बदला जरूर लूंगा।

बचपन में लाहौर में माता-पिता से बिछुड़ गया, मेरी परवरिश आइसीएस अधिकारी ने की

वीरचक्र से सम्मानित कर्नल वीरेंद्र साही बताते है कि मेरा जन्म वर्ष 1942 में जम्मू की कनक मंडी में हुआ था।जब मैं करीब 4 साल का था तो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मैं और मेरे भाई, मामा जी के साथ लाहौर रेलवे स्टेशन में किसी रिश्तेदार को लेने गया थे।मैं उनकी गोदी में था कि तभी मेरा भाई जिद करने लगा कि मुझे भी गोदी में ले लो। तभी भीड़ में से ब्रिटिश अधिकारी घोड़ पर सवार होकर स्टेशन को खाली करवाने के लिए आगे बढ़ रहा था।भगदड़ में मैं गाेदी से नीचे गिर गया। मुझे ब्रिटिश अधिकारी ने घोड़े पर बैठा लिया।मैं रो रहा था उसने मुझे खाने के लिए केला भी दिया।मैंने केला थूक दिया।तभी ब्रिटिश अधिकारी ने मुझे एक भारतीय जो अचानक वहां से गुजर रहे थे के हवाले कर दिया।वह शख्स कोई और नही बल्कि आइसीएस अधिकारी बीवीएन नारायण राजनाथ थे।जिन्होंने मुझे अपने बेटे की तहर परवरिश की।करीब 11 साल बाद मेरी इत्तेफाक से घरवालों के साथ मुलाकात की। उस समय मैं 24 साल का था और मेरी इंडियन मिलिट्री अकामदी से कश्मिन प्राप्त कर चुका था।परिवार से मिलने के बाद भी मैंने बीवीएन नारायण राजनाथ का घर नही छोड़ा और उन्हें पिता की तरह माना।

युद्ध भूमि में जाने के लिए मानिक शाह को खत लिखा

भारत-पाकिस्तान के युद्ध के समय मेरी पोस्टिंग ग्वालियर में हुई। लेकिन युद्ध शुरू हो गया था। मेरे मन हिलौरे ले रहा था कि मैं युद्ध के मैदान में जाउं जहां मेरी जरूरत है। मैंने अपने अधिकारियों को लेटर लिखा और युद्ध में जाने की इच्छा जताई। अधिकारियों ने इस पर आपत्ति जताई तो मैंने तत्कालीन चीफ आफ आर्मी स्टाफ जनरल मानिक शाह को खत लिख कर युद्धभूमि में जाने की गुहार लगाई। मानिक शाह ने मेरी गुहार को मान लिया और मुझे अखनूर सेक्टर के जीरो ललियाली ज्यौड़ियां में नियुक्त कर मेरी तमन्ना पूरी कर दी। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने भी उन्हेंं उनकी बाहदुरी पर भारत को उन पर गर्व है, के लिए प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया है।


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