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जम्मू-कश्मीर के दो शूरवीरों के गांवों से शुरू हुई आजादी के अमृत महोत्सव की शुरूआत, जानिए इनकी गौरवगाथा!

Azadi Ka Amrut Mahotsav शहीदों के गांवों में समारोह आयोजित करने के पीछे का मकसद कार्यक्रम कर पुरानी यादें ताजा करना है। कश्मीर के रक्षक कहलाने वाले ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह जम्वाल ने 27 अक्टूबर 1947 को कबाइलियों का तीन दिन मुकाबला करते हुए शहादत पाई थी।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Fri, 12 Mar 2021 01:31 PM (IST)Updated: Fri, 12 Mar 2021 01:35 PM (IST)
जम्मू-कश्मीर के दो शूरवीरों के गांवों से शुरू हुई आजादी के अमृत महोत्सव की शुरूआत, जानिए इनकी गौरवगाथा!
आइए आपको इन दोनों यौद्धाओं की पूर्ण शौर्य गाथा से अवगत कराएं।

जम्मू, राज्य ब्यूरो। देश के दूसरे राज्यों की तरह आज जम्मू-कश्मीर में भी आजादी के 75 साल पूरे होने पर अमृत महोत्सव का आगाम हुआ। जम्मू-कश्मीर और लद्​दाख में अगले साल 15 अगस्त तक करीब 75 सप्ताह तक महोत्सव के दौरान आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में आप लोग जम्मू-कश्मीर और लद्​दाख के लोगों में जोश-जनून और देश भक्ति की भावना देखेंगे। जम्मू-कश्मीर में इस महोत्सव की शुरूआत आज ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह के गांव बगूना (सांबा) और कश्मीर में मकबूल शेरवानी के जन्मस्थल बारामुला से हुआ।

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शहीदों के गांवों में समारोह आयोजित करने के पीछे का मकसद कार्यक्रम कर पुरानी यादें ताजा करना है। कश्मीर के रक्षक कहलाने वाले ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह जम्वाल ने 27 अक्टूबर 1947 को कबाइलियों का तीन दिन मुकाबला करते हुए शहादत पाई थी। वहीं उन्नीस वर्षीय शेरवानी ने 75 साल पहले श्रीनगर की ओर कूच कर रहे कबायलियों को गुमराह कर तब तक बारामूला में रोके रखा, जब तक 27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना श्रीनगर न पहुंच गई। दुश्मन की साजिश को नाकाम करने के लिए शेरवानर ने 14 गोलियां झेली व यातनाएं सह कर वीरगति हासिल कर उन्हें अपना नाम परमवीरों की श्रेणी में शामिल कर दिया। आइए आपको इन दोनों यौद्धाओं की पूर्ण शौर्य गाथा से अवगत कराएं।

भारतीय सेना के आने तक शेरवानी ने दुश्मन को उलझाए रखा: मकबूल शेरवानी अगर पाकिस्तानी कबायलियों को नहीं रोकते तो वे भारतीय सेना के आने से पहले श्रीनगर में एयरपोर्ट पर कब्जा कर पासा पलट देते। शेरवानी ने कबायलियों को गुमराह कर उनकी यह साजिश नाकाम बना दी थी। ऐसे में 27 अक्टूबर को मनाए जाने वाले इन्फैंटरी दिवस पर भारतीय सेना उन्हें हर साल श्रद्धांजलि देती है। कबायली 22 अक्टूबर 1947 तक कश्मीर के बारामूला पहुंच चुके थे और श्रीनगर की ओर कूच करने की तैयारी में थे। इस समय सूझबूझ का परिचय देते हुए शेरवानी और उनके कुछ साथियों ने साइकिल पर घूम-घूम कर कबायलियों को गुमराह किया कि श्रीनगर में भारतीय सेना आ गई है। वहां जाने का मतलब अब मौत है। कबायली चार दिन तक रुके रहे, लेकिन 27 अक्टूबर को भारतीय सेना के श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतरते ही उन्हें अंदाजा हो गया कि एक युवा उन्हें मूर्ख बना गया।

ऐसे में शेरवानी को पकड़ लिया गया और उनसे कहा गया कि अगर वह भारतीय सेना, जम्मू-कश्मीर मिलिशिया की मौजूदगी की खुफिया जानकारी दें तो बख्श दिया जाएगा। न मानने पर उनके शरीर में कील लगाकर सूली पर टांगने के बाद उन्हें नवंबर के पहले सप्ताह में गोलियां मारकर शहीद कर दिया गया। आठ नवंबर को सेना ने बारामूला वापस ले लिया और तीन दिन बाद सूली पर टंगे शेरवानी का पार्थिव शरीर लोगों को मिला। 


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