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साहस को सलाम: कश्मीर में नियंत्रण रेखा से सटे बनाली व सलासन गांवों के वीरों को कभी नहीं भूलेगी सेना

बनाली गांव पूरे हिंदुस्तान में शायद एक मात्र ऐसा गांव हैं जहां के ग्रामीणों को सेना के साथ मिलकर पाक के मंसूबों को नाकाम बनाने के लिए वीरता पुरस्कार से नवाजा गया हो।

By Rahul SharmaEdited By: Published: Sun, 26 Jan 2020 11:30 AM (IST)Updated: Mon, 27 Jan 2020 10:50 AM (IST)
साहस को सलाम: कश्मीर में नियंत्रण रेखा से सटे बनाली व सलासन गांवों के वीरों को कभी नहीं भूलेगी सेना
साहस को सलाम: कश्मीर में नियंत्रण रेखा से सटे बनाली व सलासन गांवों के वीरों को कभी नहीं भूलेगी सेना

जम्मू, नवीन नवाज। हर तरफ तोप के गोलों की बौछार। चौकी लगभग तबाह हो चुकी थी। कैप्टन सहित तीन शहीद सैन्यकर्मियों के पार्थिव शरीर नाले पार पाकिस्तानी सैनिकों से चंद की कदम की दूरी पर पड़े थे। शहीदों के पार्थिव शरीर उठाना और फिर नाला पार कर पहाड़ी चढ़ना मतलब मौत को गले लगाना था।

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कमांडिंग ऑफिसर (सीओ) ने हुक्म दिया और छह नौजवान आगे आए। गोली चलाने का अनुभव नहीं, मगर हौसला और जज्बा था। वह तुरंत गोलियों की बौछार में दुश्मन के इलाके में पहुंच गए। यह कोई कहानी नहीं बल्कि सच्ची घटना है। नियंत्रण रेखा (एलओसी) से सटे बारामुला जिले के यह छह देशभक्त ग्रामीण थे, जो 1999 में कारगिल की चोटियों में दुश्मन की मांद में घुसकर अपने कैप्टन सहित तीन शहीद सैन्य कर्मियों के पार्थिव शरीर को लेकर आए थे। इसके लिए सेना ने प्रशस्ति पत्र व वीरता पुरस्कार उन्हें सम्मानित किया था। यह आज भी उस कश्मीरियत की कहानी सुनाते हैं, जिसे अलगाववाद व आतंकवाद के शोर में कोई सुनना नहीं चाहता। बनाली गांव पूरे हिंदुस्तान में शायद एक मात्र ऐसा गांव हैं, जहां के ग्रामीणों को सेना के साथ मिलकर पाक के मंसूबों को नाकाम बनाने के लिए वीरता पुरस्कार से नवाजा गया हो।

आज भी यह छह शूरवीर बिलकुल एलओसी से सटे बनाली और सलासन गांवों में शांत जिंदगी जी रहे हैं। नसीर अहमद और उसका भाई मोहम्मद सुल्तान खान सलासन में रहते हैं, जबकि मोहम्मद शरीफ, शौकत अहमद मीर, रफीक और गुलाम नबी मीर बनाली में रहते हैं। मोहम्मद सुल्तान को सेना का मेडल और आर्मी ब्रांज भी मिला है। अन्य को बहादुरी के तमगे के साथ प्रशस्ति पत्र भी मिला है। आज यह सेना के साथ काम नहीं करते, लेकिन आज भी सेना इन्हें पेंशन देती है।

खुदा का नाम लिया और चल दिए गोलियों की बौछार में

मोहम्मद सुल्तान को हालांकि तारीख याद नहीं है, लेकिन वह उस दिन को याद करते हुए कहते हैं कि हम 12 बिहार रेजिमेंट में बतौर कुली काम करते थे। हमारा काम सिर्फ सेना का सामान अगली चौकियों तक पहुंचाना या फिर किसी जख्मी जवान को उठाना होता था। पाकिस्तान ने हमला कर दिया था, हमारे एक कैप्टन सूरज, हवालदार तिवारी और सिपाही मनोज शहीद हो गए थे। उनके शरीर पाकिस्तानी सैनिकों के इलाके में थे। नसीर ने कहा कि सीओ साहब ने कहा कि हमें किसी तरह से कैप्टन व अन्य शहीदों को लाना है। हमने कहा कि यह हमारा जिम्मा है। हमने खुदा का नाम लिया और उसके बाद गोलियों की बौछार के बीच हम दुश्मन की चौकी के पास थे। हमने अपने शहीदों को उठाया और वापस आए। शौकत अहमद मीर ने कहा कि उस समय करगिल की जंग हो चुकी थी। हम करगिल की चोटियों में बिहार रेजिमेंट के साथ थे। हमारे सीओ चंदेल साहब थे। नवंबर का महीना था और पाक के हमले में हमारे तीन जवान शहीद हुए थे।

कोई कश्मीरी हिंदुस्तान के खिलाफ नहीं

कश्मीर के मौजूदा हालात पर मोहम्मद सुल्तान और शौकत अहमद मीर कहते हैं कि यह अच्छा हुआ है। अब हालात तेजी से बदलेंगे। कोई कश्मीरी फौज के खिलाफ नहीं हैं, कोई हिंदुस्तान के खिलाफ नहीं। यह हमारा वतन है, यही हमारी फौज। अगर कश्मीरियों को ¨हदोस्तान से दुश्मनी होती या फौज हमारी दुश्मन होती तो क्या हम करगिल में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ते। हमने वहां सिर्फ सामान नहीं उठाया या शहीदों व जख्मियों को लेकर नहीं आए, हमने गोलियां भी चलाईं और ङोली भी। पाकिस्तान को हमसे कोई मतलब नहीं और न हमारा पाकिस्तान से कोई नाता।


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